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Showing posts from December, 2010

साम्या

"नहीं ये नहीं हो सकता " ,"लेकिन क्यों नहीं ? क्या अब हम दोस्त नहीं हैं ? " "दोस्त ... हाँ... पता नहीं...मुझे नहीं पता ... प्लीज़ मुझे अकेला छोड़ दो." इतना कह कर साम्या रेस्टोरेंट से चली गयी और उसके बाद मैंने उसे कभी नहीं देखा... अगले कई  सालों तक  नहीं. जब में उससे पहली बार मिला तब मुस्किल से वह बीस-इक्कीस साल की होगी...ओह...बहुत ही मासूम सी लगती थी.. छोटा कद , घुंघराले बाल .. ज्यादा लम्बे नहीं .. शायद कंधे तक... और गहुआ रंग ... भीड़ में कम बोलना .. और अकेले में चिल्लाना ... जोर जोर से हँसना ... वेटर के सामने मुस्कुराना और उसके पलटते ही मुझे आँख मारना... जब मैं उसे बच्ची समझता तो बड़ो जैसी हरकते कर जाती ... और जब मैं कुछ करने जाता ... मासूम बन एक टक ऐसे  देखती जैसे मैंने कोई गुनाह कर दिया... बिलकुल पगली लड़की थी... "पापा ये देखिये... आंटी...! साम्या आंटी को प्राइज़ मिला..." प्रशांत ने मुझे एक दम हिला ही दिया... मैंने प्रशांत को धीरे से मुस्कुरा कर कहा.. "हाँ ! लेकिन साम्या ने से इसे लेने से मना कर दिया..." अब प्रशांत के चोंकने की बारी

सपने

दूर पहाड़ी से उगता हुआ सूरज खिलती धूप और उसकी चमक से रौशन होता वो लकडियो वाला घर आस-पास हरियाली और नीचे बहती हुई वो सुरीली नदी... सपने कितने रंगीन होते हैं न , और शायद अंधे भी जिन्हें बीच में फैलती  खाई नहीं दिखती पीले झड़ते पत्ते और सूखती नदी नहीं दिखती...

याद

बहुत  दिनों  बाद वे मुझे  फिर याद   आई जिन्हें  मैंने  तीन  अप्रेल  कि शाम  को  पहली  बार  उसी रेस्टोरेंट में देखा  था  और  उसके  बाद  शायद  एक  या  दो  बार  और देखा हो   एक  सुंदर  कांच  के  महल  में  कैद  वो  एक  सुनहरी  और  एक  चमकीली  मछली . एक  बक्से  में  बंद  बिना  गुनाह  के  सजा  झेलती  उपर  से  नीचे  नीचे  से  उपर चक्कर काटती   बक्से  से  निकलने  को  बैचेन  मन ... मैं  बहुत  दूर  बैठी  उन्हें  ताकती   और  कुछ   सोच  न  पाने  कि  स्तिथि  में  थी  कोई  चीज़  थी  हमारे  बीच  एक सी    ज़िन्दगी  में  कैद  फिर   भी  ज़िन्दगी  से  दूर  ये  तड़प  थी   बन्धनों  की  .  उन मछलियों   की  याद   अभी  भी   ज़ेहन  में  किसी   जिंदा  तस्वीर  कि  तरह "कैद" है.