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Showing posts from February, 2013

गोदान, पुनर्नवा, और स्त्री

बहुत समय हुआ जब मन में पहली बार ये सवाल उपजा था की- मुझे क्या करना है, जॉब या कुछ नहीं। मैंने कुछ नहीं को चुना - फिर भी बहुत कुछ कर लिया - एम् ऐ हिंदी में, और दादाजी की सेवा, घर के काम भी सिख लिए, और स्वाध्याय का आनंद भी पा लिया। फिर मन में एक सवाल खड़ा हुआ है - अबकी बार शादी का , पति , परिवार, और भविष्य का है। लेकिन जवाब इस बार भी उन्ही विचारों के इर्द-गिर्द मंडरा रहा है। जॉब नहीं करना - ऐसा तो बिलकुल भी नहीं जिसमे दम घूंटे , जीने के मायने जाते रहे, और इंसान एक पहिया बनकर रह जाए। जब गाडी ही उसने बनायी है तो वो मात्र पहिया क्यूँ बना रहे? और फिर ये भी तो उसके हाथ में है की उसे पैदल चलना है या गाडी चाहिए। मुझे इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता . सिर्फ ये जरुरी है की रास्ता इतना सुहावना हो की रास्ता ही मंजिल लगने लगे, मंजिल और रास्ते का फर्क मिट जाए। लेकिन बात कुछ और है। बात है स्त्री की, स्त्री-पुरुष कर्तव्य की, विवाह की। जबसे प्रेमचंद का गोदान पढ़ा है, मन में मिस्टर मेहता के स्त्री समानता के सम्बन्ध में कहे विचार घूमते रहते हैं। स्त्री और पुरुष सामान हो ही नहीं सकते। स्त्री का दर्जा  पुर

पुनर्नवा - हजारी प्रसाद द्विवेदी

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बात बस इतनी सी है, मैं खुद को रोक नहीं पा रही। नहीं, इतनी सी बात नहीं हो सकती। मुझे हजारी प्रसाद जी के उपन्यास पढ़ कर न जाने क्या हो जाता है। होता तो निर्मल वर्मा के उपन्यास पढ़कर भी है, लेकिन वो मन को अस्त-व्यस्त कर बुरी तरह से हिल देते हैं, अँधेरे का चरम दिखा देते हैं। लेकिन हजारी प्रसाद जी के लेखन में कोई अलौकिक शक्ति है। ऐसा लगता है जैसे सत्य सौ परदे चीर कर आँखे चौंधिया देता है। वर्मा का लिखा हुआ आत्मानुभाव सत्य-यथार्थ है, हजारी जी का अलौकिक सत्य, जिसका कोई विकल्प नहीं, कोई भी नहीं । एक मित्र के सहयोग से पुनर्नवा उपन्यास हाथ लग गया । , सच में ये उपन्यास , पुनर्नवा ही है। इसके बारे में कुछ भी कहना मेरे लिए संभव नहीं। हाँ इतना जरुर कहूँगी की, जिसने हजारी जी के उपन्यास नहीं पढ़े, उसने हिंदी साहित्य में कुछ नहीं पढ़ा, क्यूंकि इनके उपन्यास हिन्दू संस्कृति का निचोड़ तत्व हैं। और हजारी जी सिर्फ संस्कृति के ही मर्मग्य नहीं बल्कि उत्तम कथाकार भी हैं। उनके उपन्यास में जितनी श्रेष्ठ कोटि का भाव तत्व है, उतने ही श्रेष्ठ कोटि का कलात्मक गुण है। कथा को वे जिस क्रम में पेश करते हैं वह  पूर