tag:blogger.com,1999:blog-119837778728574872024-02-21T00:54:52.923-08:00{ आत्मिक ओज }@ngel ~http://www.blogger.com/profile/18294353918556424079noreply@blogger.comBlogger145125tag:blogger.com,1999:blog-11983777872857487.post-59437890873187101822020-01-29T01:57:00.000-08:002020-01-29T01:57:36.609-08:00परीक्षा<div>और अब जब वह जानती थी कि...<br></div><div>ख़ैर! उसने धीरे से उसके बाल सहलाते हुए, उसके चौड़े ललाट पर हाथ फेरते हुए कहा, "अगली बार तुम कब आओगे?"</div><div>"मैं नहीं जानता। मैं कब कहां जाऊंगा, सोचना नहीं चाहता।"</div><div><br></div><div>"हम्म..." </div><div><br></div><div>इतने में मंदिर की सीढ़ियां चढ़ते हुए एक कृशकाय औरत की आकृति दिखाई दी। वह हांफते हुए कहने लगी मानो नीचे खड़े लगभग सौ लोगों की जुबान वह ही बन गई है।</div><div>"गुरुजी हम सब आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।"</div><div>"हां, चलो।" कहते हुए वे चले गए। बिना उसकी ओर देखे।</div><div>तभी उसे याद आया, बच्चे घर पर उसकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। मंदिर के अंदर भी नहीं गई वो, बाहर से ही लौट आई।</div><div>बच्चों से कह कर तो आयी थी कि आज अमावस्या है इसीलिए मंदिर में दीया करने जाना है।</div><div>बच्चों ने इतना गौर नहीं किया। मां के धर्म - कर्म में उन्हें कोई रुचि नहीं थी। लेकिन उसी का मन पूछने लगा था, क्या जाना चाहिए?</div><div>फिर उसने जैसे स्वयं को समझाते हुए कहा था, " गुरुजी को मिल लूं, शायद आखरी बार।"</div><div>और अब वे चले गए थे। लेकिन ये क्या... मंदिर की सीढियों पर वे अपना तांबे का पात्र भूल गए। ज्योति ने उत्साहित होकर पात्र अपने हाथ में लिया तो देखा उसमें एक कागज की पर्ची है। ज्योति ने खोल कर पढ़ा तो देखा, उसमें लिखा था, "संयम सबसे बड़ी परीक्षा है।"<br></div><div>वह यह जानती थी। वह सब जानती थी किन्तु इस परीक्षा में कभी सफल नहीं हो पाई थी। लेकिन आज पात्र में अपने प्रिय द्वारा इसे मंत्र रूप में पाकर वह धन्य हो गई थी। </div><div><br></div>@ngel ~http://www.blogger.com/profile/18294353918556424079noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-11983777872857487.post-17276128995235872972018-12-16T12:22:00.001-08:002018-12-16T12:22:01.378-08:00<p dir="ltr">सुनो ज़रा करीब आओ<br>
अपनी आँखें मुझे दिखाओ<br>
इन साधारण सी दिखने वाली आँखों से<br>
तुम्हें ये दुनिया जादूभरी कैसे दिखती है, बताओ <br>
हां! तुम्हारे सीने पर हाथ रख<br>
तुम्हारी धड़कनों को महसूस करते हुए<br>
मुझे लगता है कि इनके भीतर<br>
जो रूह है तुम्हारी<br>
वह कभी किसी<br>
जादूगर के वश में रही होगी </p>
@ngel ~http://www.blogger.com/profile/18294353918556424079noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-11983777872857487.post-72228717980761656832018-12-14T03:24:00.001-08:002018-12-17T04:57:24.158-08:00बाबा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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</a>
बाबा न जाने कितनी तरह की मशीनों से घिरे हुए थे। कई नलियां उनके शरीर में घुसी हुईं थीं - लगता था मानो आज वे पतली-छोटी नालियां इंसान से बड़ी हो गयी हैं. ...वह बाहर खड़ा है। अस्पताल के इस भारी वातावरण में उसे नींद नहीं आती। उसकी बड़ी माँ बाहर हाल में फर्श पर लेटी है और नाना जिसे वह बाबा कहता है अंदर रूम में लेटे हैं। वह बाहर कॉरिडोर में घूमता है पर यहां बहुत भीड़ है हर मरीज के रिश्तेदार जहाँ-तहाँ पसरे हुए हैं। समय और मौसम से बेखबर, सफ़ेद ट्यूबलाइट की धुंधली रौशनी में हर कोई एक-जैसा ही दिख रहा है. - सबके चेहरे पर एक ही भाव है पीड़ा का। कभी - कभी वह सोचने लगता है कि ज्यादा पीड़ा किसे हो रही है मरीजों को , जो अंदर कई नालियों और मशीनों के चंगुल में फंसे हैं या इन मरीजों के रिश्तेदारों को। रिश्तेदारों के चेहरे की पीड़ा देखना जब असहनीय हो जाता है तब वह बाबा के पास चला जाता है। वे अक्सर आँख बंद करके शांत लेटे होते हैं। उनका चेहरा हालांकि सूख गया था पर फिर भी उस सूखे कमल-समान चेहरे पर एक तेज़ दिखाई पड़ता था बिलकुल वैसा जैसा उसने भगवानों की तस्वीरों में उनके चेहरे पर देखा है।<br />
<br />
दस दिन हो गए थे बाबा को ऐसी हालत में हालांकि उसे यहाँ आये २-३ दिन ही हुए हैं। सब कुछ ठहर-सा गया था ज़िन्दगी में। फिर भी इतनी भगा-दौड़ी थी। रूम से अस्पताल , अस्पताल से दवाईखाना ,हाल से आइ.सी.यु , आइ.सी.यु से कमरा, इसे फोन करो, उसे सूचना दो , इससे डाक्टर के पते लेना और बस ये सिलसिला चलता ही रहता जब तक एक भारी पत्थर सर पर न महसूस होने लगे कि - 'अब क्या?' कैसे किसी और की ज़िन्दगी का फैसला किसी और के हाथों में आ जाता है। जैसे ज़िन्दगी नहीं खेल हो -तीन एम्पायर ने फैसला लिया, बस आप 'आउट ' । पर उसके बाबा के लिए यह फैसला किया गया था कि उन्हें 'और खेलने देना चाहिये ' . नहीं ये खेल तो नहीं , यहाँ तो सब कुछ बहुत ' सीरियस ' है। इतना बड़ा निर्णय, इतनी बड़ी जिम्मेदारी, इतना खर्चा, और फिर। ... यह क्रिकेट ग्राउंड नहीं समाज है। उसकी अंग्रेजी वाली मेडम कहा करती थी - 'कन्वेंशंस ! कन्वेंशंस माई डियर। 'कई खांचे, कई खूँटियाँ। .. पहले से तय निर्णय वहां टंगे हैं - कोई चुनाव नहीं है - ये निर्णय हैं,ऐसे ही हैं,और ऐसे ही लेने पड़ेंगे. ऐसा क्यों है? किसने बनाया? ये सब फ़ालतू की बातें हैं।<br />
<br />
<br />
...
एक पल को वह ठिठका , बाबा ने आँखें खोली थीं। आस-पास सन्नाटा था। ...घडी में लगभग रात के डेढ़ बजे होंगे उसे लगा बाबा को कुछ चाहिए होगा पर। ... बाबा शांत थे। .. हमेशा की तरह। कुछ पल छत को सुनी आँखों से ताकते रहे फिर एक निगाह उस पर डाली। वह कुछ कह पाता इससे पहले उन्होंने आँखें बंद कर लीं। जाने क्यों उसे ऐसा लगा कि बाबा को तकलीफ हो रही है - वो इस पीड़ा से मुक्ति पाना चाहते हैं ,पर उन्हे इसकी आज़ादी नहीं है। उस क्षण को उसे लगा - यह पीड़ा है। ... हर पीड़ा से बड़ी - जीवन और मृत्यु के बीच निहायत तीन बिंदी ...
</div>
@ngel ~http://www.blogger.com/profile/18294353918556424079noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-11983777872857487.post-50064814030256872032018-11-14T01:43:00.001-08:002018-11-14T01:43:57.668-08:00गुनाह <p dir="ltr">कुछ मासूम से गुनाह<br>
मैं आज कबूल करती हूं </p>
<p dir="ltr">तुमसे बातें की मैंने <br>
बिना तौल औ' बेतुकी <br>
जैसे तुम हो ही न वहां<br>
मैं खुद से ही करती थी बातें</p>
<p dir="ltr">तुमसे सपने किए साझा <br>
और सोचा नहीं कि <br>
सपने तो किसी की सबसे<br>
कीमती चीज होते हैं </p>
<p dir="ltr">तुमसे बांटा दुख<br>
तुम्हारे कंधे पर आंसू ढलकाए<br>
क्या पता था कि<br>
ये एक मोम का तुम्हारे सीने पर <br>
धीरे-धीरे पिघलना था</p>
<p dir="ltr">और सच कहूं तो <br>
जब तुम्हारा सरल प्रेम स्वीकार किया<br>
ये मेरे लिए उतना ही सहज था <br>
जितना ब्रह्मांड का अपनी गति से चलना... </p>
<p dir="ltr"> ये मेरे कुछ मासूम से गुनाह हैं<br>
जिन्हें मैं आज कबूल करती हूं </p>
@ngel ~http://www.blogger.com/profile/18294353918556424079noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-11983777872857487.post-34566837816203188552018-11-13T19:31:00.001-08:002018-11-17T03:47:32.821-08:00गिरवी <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="ltr">
रूह मेरी गिरवी रख लो तुम <br />
और बदले में कुछ भी देना नहीं<br />
ये तन तो मिट्टी की तिजोरी है और <br />
मुझे संभालना ही कब आया <br />
कीमती चीजों को कभी </div>
<div dir="ltr">
मेरा तो सब कुछ लूट ही जाना है <br />
लूट ही जाएगा <br />
तमाम ख्वाहिशें, उमंग और जीने की चाह भी <br />
एक दिन बिक जाएगी <br />
लेकिन रूह बचेगी तुम्हारे पास और <br />
कीमत उसकी बढ़ती ही जाएगी </div>
<div dir="ltr">
रूह मेरी गिरवी रख लो तुम <br />
और बदले में कुछ भी देना नहीं </div>
</div>
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<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="ltr">
तुम्हारे बारे में सोचते हुए<br />
मैं अक्सर उसी के बारे में सोचती रही हूँ<br />
और यह भी<br />
कि प्यार क्या ऐसा ही होता है...<br />
<br /></div>
<div dir="ltr">
कि सदियों तक<br />
तुम्हारे नाम कोई जुदा न कर पाए<br />
<br /></div>
<div dir="ltr">
कि मरने के बाद भी<br />
वो वहीं रहे, बिल्कुल वैसे ही <br />
हमेशा की तरह<br />
<br /></div>
<div dir="ltr">
कि वो अनजाने ही तुम्हारी पीठ पर <br />
किसी और का नाम लिख दे <br />
और तुम फिर भी उससे बेपनाह मोहब्बत करो <br />
क्यूंकि उसकी मोहब्बत भी उसकी है और तुम भी <br />
<br /></div>
<div dir="ltr">
कि तुम पेंटर से कवि बन जाओ<br />
और वो कवि से एक औरत - <br />
जो इश्क़ में मुकम्मल हो गयी है<br />
<br /></div>
<div dir="ltr">
प्यार क्या ऐसा ही होता है<br />
इमरोज़? <br />
तुम्हारे बारे में सोचते हुए <br />
फिर अक्सर <br />
मैं उसके बारे में सोचने लगती हूँ. </div>
</div>
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</div>
@ngel ~http://www.blogger.com/profile/18294353918556424079noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-11983777872857487.post-74805693861071667322018-09-18T20:13:00.001-07:002018-09-18T20:13:34.047-07:00तपस्या
<p dir="ltr">मौन बन कर<br>
एक अमृत बूंद <br>
मेरी रगों में दौड़ रही है... </p>
<p dir="ltr">और भीतर सब दिशाएं <br>
गूंज रही हैं</p>
<p dir="ltr">जन्मों जन्मों की तपस्या <br>
का इंच भर भी <br>
अगर जीवन के कंटीले रास्तों में <br>
मैंने खो दिया है</p>
<p dir="ltr">तो हे मेरे हिमालय! <br>
मुझे पता है कि <br>
अनंत तपस्या के लिए <br>
मुझे एक बार <br>
हमेशा के लिए <br>
तुमसे कहाँ मिलना <u>है.</u></p>
@ngel ~http://www.blogger.com/profile/18294353918556424079noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-11983777872857487.post-29411077891602243072018-04-05T03:54:00.001-07:002018-04-05T03:54:10.293-07:00शादी के बाद <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
तुमने काट दिए दो पैर<br />
और कहा,<br />
"ऐसे गिर-गिर कर क्या चलोगी<br />
छोड़ दो। ..<br />
घर बैठे रहो। ... "<br />
तुमने रख लिए गिरवी दो हाथ<br />
और कहा,<br />
" क्या करोगी बिना हाथ के<br />
जाने दो....<br />
घर बैठे रहो। ... "<br />
तुमने खींच ली जबान<br />
और समझाया,<br />
"कौन सुनेगा अब तुम्हारी<br />
मेरे सिवा...<br />
घर बैठे रहो। ... "<br />
फिर तुमने ब्रेनलेस साबित कर<br />
ऐलान कर दिया<br />
"कुछ करने योग्य नहीं हो<br />
भूल जाओ। ...<br />
घर बैठे रहो। ... "<br />
<br />
एक गोल्डमेडलिस्ट को<br />
बड़े आहिस्ते-से<br />
ड्राइंगरूम की चमक-धमक में<br />
कांच के शो-केस में बंद कर<br />
तुम बड़ी तहज़ीब-से<br />
मेहमानों से कहते हो,<br />
"हम अपनी बेटी को बहुत पढ़ाएंगे,<br />
वेस्ट नहीं होने देंगे इसका टेलेंट घर-में । "<br />
और मैं तुम्हारी बातों पर<br />
न हंस पाती हूँ<br />
न रो पाती हूँ। </div>
@ngel ~http://www.blogger.com/profile/18294353918556424079noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-11983777872857487.post-53805963313625376542018-04-05T03:32:00.000-07:002021-01-24T09:01:36.281-08:00भूख<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बाहर से निरिक्षण करने आये साहब ने चौथी कक्षा के विदयार्थियों के सामने रखे मिड-डे मील के खाने की जाँच की। पत्थर जैसी रोटी और पानी जैसी दाल देखकर साहब गुस्से से तमतमा गए। विद्यालय के अधिकारियों को फटकार लगाते हुए उन्होंने पुछा, "क्या तुम ऐसा खाना खा सकते हो? इन मासूम बच्चों को ऐसा खाना खिलाते तुम्हें शर्म नहीं आती? "जब साहब का गुस्सा इतने से शांत नहीं हुआ तब उन्होंने पत्थर जैसी रोटियां बच्चों को दिखाकर पुछा, "क्या रोज़ ऐसी ही रोटियां मिलती हैं?" बच्चे मूक दृष्टि से एक-टक साहब को देखते रहे। साहब ने फिर अनिश्चित भाव से अपने साथी से कहा , "आखिर कैसे खा लेते हैं बच्चे ऐसा खाना?" इतने में ही एक बच्चा दौड़ कर आया और साहब के हाथ से रोटी छीन ली। साहब फिर कुछ बोलते इससे पहले बच्चा बोल पड़ा, "भूख लगी है साहेब ... खाने दो ना। "<br>
<br></div>
@ngel ~http://www.blogger.com/profile/18294353918556424079noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-11983777872857487.post-79199365968088532932018-03-26T04:08:00.000-07:002018-03-26T04:08:56.349-07:00कुछ पंक्तियाँ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
किसी दिन यूँ ही<br />
जब टहलते हुए<br />
यहां आ पहुंचो तुम<br />
ये जगह तुम्हारी यादों से<br />
गुलजार मिले तुम्हें<br />
<br />
- to an anonymous</div>
@ngel ~http://www.blogger.com/profile/18294353918556424079noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-11983777872857487.post-68441928234026764172018-01-10T20:07:00.001-08:002018-01-10T20:07:15.998-08:00प्रेम<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
रात आधी<br />
मैंने बितायी<br />
तारों को छूते हुए<br />
और तुम्हारे न होने पर भी<br />
तुम्हारी खुशबू को<br />
हौले से अपने भीतर<br />
महसूस करते हुए<br />
<br />
यह महज़ मेरे स्त्री<br />
और तुम्हारे पुरुष होने का<br />
सम्मोहन नहीं है<br />
यह एक अनुभूति है<br />
प्रेम से भीगी हुई<br />
उन सपनों के लिए<br />
जो मेरे अपने थे<br />
और कभी-कभी<br />
व्यक्ति से अधिक<br />
हम अपने ही<br />
सपनों से प्रेम करने लगते हैं। </div>
@ngel ~http://www.blogger.com/profile/18294353918556424079noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-11983777872857487.post-91638964868843746712018-01-10T20:03:00.001-08:002018-01-10T20:03:24.614-08:00स्त्री होने का दर्द .... <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक अरसे तक मैंने<br />
कविता लिखना छोड़ दिया था<br />
क्यूंकि मैं लिख रही थी<br />
जीवन के पन्नों पर<br />
स्त्री होने का दर्द ....<br />
<br /></div>
@ngel ~http://www.blogger.com/profile/18294353918556424079noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-11983777872857487.post-56010897277783627932018-01-10T20:01:00.002-08:002018-01-10T20:01:39.508-08:00रोज़ एक दिन गुजर जाता है <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
सुबह की चाय से लेकर<br />
रात के खाने की नखरा-नुकुर तक<br />
रोज़ एक दिन गुज़र जाता है<br />
<br />
झाड़ - झटकार से लेकर<br />
सबकी जरूरतों का ख्याल रखने तक<br />
रोज़ एक दिन गुज़र जाता है<br />
<br />
न आकाश देखने की फुर्सत<br />
न चाँद निहारने की<br />
पाखाने से लेकर रसोईघर तक<br />
रोज़ एक दिन गुजर जाता है<br />
<br />
दिन कहाँ उगता है<br />
रात कहाँ सरक जाती है<br />
बुज़ुर्गों की डाँट से लेकर<br />
बच्चों की फटकार सुनने तक<br />
रोज़ एक दिन गुजर जाता है<br />
<br />
दिन महीने साल गुज़रते<br />
वक्त नहीं लगता<br />
जहाँ मन तक नहीं लगता था<br />
वहीँ पूरा जीवन लग जाता है<br />
रोज़ ... बस ! एक दिन गुजर जाता है<br />
<br />
<br />
<br />
<br /></div>
@ngel ~http://www.blogger.com/profile/18294353918556424079noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-11983777872857487.post-37014031187430853092016-03-22T23:00:00.000-07:002016-03-22T23:00:30.658-07:00कहानी के चरित्र <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div>
<br /></div>
<div>
आज-कल कहानियाँ पढ़ने का चस्का-सा लग गया है , अक्सर रात को सोने से पहले हिंदी समय या अभिव्यक्ति ब्लॉग पर एक कहानी पढ़ कर ही सोती हूँ। यूँ तो हम कई कहानियाँ पढ़ते हैं , पर चरित्र प्रधान आधुनिक कहानियाँ कभी-कभी दिल को इतना छू लेती हैं की लगता है ये कुछ जाना-पहचाना-सा है। </div>
<div>
<br /></div>
<div>
हाल ही में पढ़ी कुछ मन पसंद कहानियाँ हैं - रोज़ (अज्ञेय) , ठेस (फणीश्वरनाथ रेनू ) , मिस पॉल (मोहन राकेश)</div>
<div>
<br /></div>
<div>
कल मिस पॉल पढ़ी तो ऐसा लगा कि कभी कभी कहानी के भीतर का संसार कितना यथार्थ लगता है , मानो आप कहानी के भीतर ही हों, किसी अदृश्य पात्र की तरह। मेरे खयाल में हिंदी साहित्य को वर्तमान रूप देने वाली चुनिंदा कृतियाँ एवम रचनाएँ तो सभी साहित्य-प्रेमियों को पढ़नी चाहिए। ऐसा करते समय आप कविता का भी उतना ही आनंद लेंगे जितना की कहानी या उपन्यास का। इस दृष्टि से, मैं कहूँगी की आप निराला की "राम की शक्तिपूजा" भी अवश्य पढ़िए। </div>
<div>
<br /></div>
<div>
अगली कहानी की खासियत साझा करने फिर मिलूंगी , तब तक के लिए ... होली की ढेरों शुभकामनाएँ। :)</div>
<div>
<br /></div>
</div>
@ngel ~http://www.blogger.com/profile/18294353918556424079noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-11983777872857487.post-19556769845569538962016-03-21T23:10:00.003-07:002016-03-22T02:28:59.138-07:00बोझ <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-family: "helvetica neue" , "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span style="background-color: white; color: #222222;">किसी भी लड़की के लिए इससे अच्छी बात क्या हो सकती है की उसका एक घर हो, अच्छी गृहस्थी </span><span style="background-color: white; color: #222222;"> हो, पति बहुत प्यार करने वाला हो और सास-ससुर बेटी की तरह रखते हों। प्रीतम के भी ऐसा ही था। लेकिन कभी कभी वह खुद से पूछ लिया करती की ," खुश रहने के लिए क्या यह काफी है ?" जवाब जो भी हो , उसका कोई मतलब नहीं था अब। शादी को तीन साल होने आ गए थे। कई दिन</span><span style="background-color: white; color: #222222;"> अच्छे - से, एक जैसे जाते , किन्तु बीच-बीच में उसका मन उखड जाता। तब वह बीते दिनों को याद करने लगती। मनजीत </span><span style="background-color: white; color: #222222;"> की याद तो उसे सबसे ज्यादा आती थी , आखिर वो एक अनसुलझी पहेली</span><span style="background-color: white; color: #222222;"> जो था। कॉलेज के आखरी दिन उसने ग्राउंड के पीछे बुला कर प्रीतम से कहा था की , "तुम मुझे अच्छी लगती हो। " प्रीतम ने " हम्म " कह कर बात टाल </span><span style="background-color: white; color: #222222;">दी थी। तब उसे समझ ही नहीं आया , अच्छा लगने का क्या मतलब</span><span style="background-color: white; color: #222222;"> है। </span></span><br />
<div style="color: #222222;">
<span style="font-family: "helvetica neue" , "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div style="color: #222222;">
<span style="font-family: "helvetica neue" , "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आज सुबह प्रेस के कपड़ों की गठरी उठा कर वह चल दी थी। जब प्रीतम का मन उखड जाता तो किसी भी बहाने घर से पैदल निकल लिया करती थी। आज सुबह से ही उसे जैसे उसे कांटे चुभ रहे थे कि , "कुछ अच्छा नहीं लग रहा।" वह मन ही मन सोचती की ,"अच्छा तो यह होता की मैं यहाँ से कहीं दूर होती जहाँ रोज़ कई लोगों से मिलती , अपना मन पसंद काम करती , अपनी प्रतिभा को पहचानती, उसे निखारती और मेरी तरह के दो-चार लोगों के साथ मिलकर दिल की बातें करती। कितने दिन हुए , किसी से दिल खोलकर बातें भी तो नहीं की। " प्रीतम सोचते-सोचते गठरी का बोझ लिए न जाने कितना आगे निकल आई थी और धोबी की दूकान पीछे ही रह गयी। </span><br />
<div>
<span style="font-family: "helvetica neue" , "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div>
<span style="font-family: "helvetica neue" , "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><img src="https://hindimessage.files.wordpress.com/2012/02/sad-hindi-sms.jpg" /><br />
<br />
<br /></div>
</div>
</div>
@ngel ~http://www.blogger.com/profile/18294353918556424079noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-11983777872857487.post-62290514824034286482016-03-21T22:38:00.000-07:002016-03-22T02:22:08.696-07:00 एक भीगा हुआ-सा स्वप्न <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;">कल रात की तो नहीं ... शायद कई दिन पहले की बात है। फिर से एक ऐसा सपना देखा मैंने, मानो कोई </span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;">रहस्यमयी कहानी पढ़ी हो। एक हरा-भरा मैदान जिस पर </span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;">आगे चलते हुए एक झरना पड़ता है। बहुत दिव्य, मनमोहक झरना। झरने के पीछे एक गुफा जिसमे एक दिव्य गन्धर्व रुपी जोड़ा अभिसार कर रहा है। उनकी क्रीड़ाएँ मन में गुदगुदी करने वाली थीं। वे हँसते दौड़ते छेड़ते खेलते रंग उड़ाते कभी पानी में नहाते ... ऐसी दिव्यता थी उनकी हर क्रिया में मा</span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;">नो वो ज़मी स्वर्ग का कोई टुकड़ा हो। मैं अभिभूत होती हुई आगे बढ़ती जा रही थी की अचानक ठिठक गयी उन्होंने मुझे एक पल </span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;">आश्चर्य से देखा , वह स्त्री दूजे ही पल निर्जन वन में गायब हो गयी। मैं देखती रह गयी। मैं भी भागने को हुई किन्तु उस ... उस मनुष्य रुपी देवता ने मेरा हाथ पकड़ लिया। वह न जाने कब तक मुझे देखता ही रहा - कई भाव उसके चेहरे पर आये और गए , मैं कुछ समझ नहीं पायी, जैसे किसी ने मुझे वश</span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"> में कर लिया हो। धीरे-धीरे स्वप्न के उस धुंधले प्रकाश में मैंने देखा , वह मेरे पैरों में झुका था ... स्वप्न में मैंने बहुत देर बाद जाना , मैं पत्थर की मूर्ति हूँ , भीतर बहुत-से प्रश्न उबल रहे हैं ,बहुत</span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"> कुछ महसूस कर रही हूँ , पर सब कुछ वहीँ ठहर गया था। </span><br />
<div>
<span style="background-color: white; color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif; font-size: x-small;"><br /></span></div>
</div>
@ngel ~http://www.blogger.com/profile/18294353918556424079noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-11983777872857487.post-71177051746063212852016-03-21T22:19:00.000-07:002016-03-21T22:19:04.098-07:00हर बार की तरह <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small; text-align: center;">
<i>ये शरारत </i></div>
<div style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small; text-align: center;">
<i>अच्छी नहीं तुम्हारी </i></div>
<div style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small; text-align: center;">
<i><br /></i></div>
<div style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small; text-align: center;">
<i>हर बार की तरह </i></div>
<div style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small; text-align: center;">
<i>इस बार कहना न,</i></div>
<div style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small; text-align: center;">
<i>"तुम्हारा दिल रखने के लिए ,</i></div>
<div style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small; text-align: center;">
<i>बस यूँ ही ... "</i></div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
</div>
@ngel ~http://www.blogger.com/profile/18294353918556424079noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-11983777872857487.post-23487535875206385852016-03-20T09:19:00.000-07:002016-03-20T09:19:39.694-07:00वो एक आशिक था <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<br />
वो अचानक से कहने लगा। रूहानी थोड़ा सुनती, थोड़ा समझने की कोशिश करती , उसकी वो अजीब बातें । वो कहता, तुम्हारी याद आती है। तुमसे जुडी हर चीज़ मुझे यहाँ - तहाँ दिखाई देने लगती है। वो तुम्हारा पसंदीदा शब्द "विश्वास" तो न जाने क्यों मेरे पीछे सा पड़ गया है। कहते हैं न, जिससे प्यार हो उससे जुडी हर चीज़ से प्यार हो जाता है। रुहानी को सुन कर अचम्भा - सा होता है। वो फिर भी कहता जाता , पागलों की तरह जैसे मानो जहाँ हो वहाँ आकाश में चिल्ला रहा हो , की आज मैं भरा-भरा सा हूँ, खुला-खुला सा हूँ , जी करता है ये सब प्यार लूटा दूँ किसी पर। रूहानी आँखे बंद कर के महसूस करना चाहती है। वो फिर अचानक से पूछता है , तुम्हे नहीं पता था ये? रूहानी धीरे से कहती है, "नहीं।" "सच ! नहीं पता था?" " नहीं ! बिल्कुल भी नहीं। " "मुझे लगता था तुम मुझे जानती हो। " रुहानीअपने मन से पूछती है , "क्या मैं उसे जानती हूँ ?" मन उसी की तरह भोला , भुला , भटका हुआ -सा कहता है , "मुझे तो इतना ही पता था, की वो एक आशिक था। " रूहानी खोयी - सी सोच में पड़ जाती है , सच क्या ! और जो मैंने अभी-अभी एक लौ-सी उसमे जो देखी है वो क्या है ?</div>
@ngel ~http://www.blogger.com/profile/18294353918556424079noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-11983777872857487.post-16998981720116308032016-03-19T11:04:00.002-07:002016-03-19T11:07:00.353-07:00गोदान - एक विचार <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
आज फिर से गोदान पढ़ा। पढ़ना था परीक्षा की तैयारी के लिए। मतलब , जो ख़ास तथ्य ,चरित्र इत्यादि हैं उन्हें रट लो , किन्तु मन जो कथा में उलझता गया , परीक्षा का ख्याल ही भूल गयी। और अंत.... एक घुटी रुलायी ... आख़िर यह उपन्यास है या निचोड़ , और वह भी ऐसा कि जिसमे जीवन का हर वो रस घुला है जो कम से कम भारत का हर व्यक्ति महसूस कर सकता है। <br />
<br />
आज गोदान पढ़ कर लगा, इसके हर भाग , हर संवाद , हर सूक्ति पर कई-कई शोध लेख लिखे जा सकते हैं। शोध लेख तो फिर कभी , पर इस उपन्यास का एक कथन मैं आज आपके सामने रखना चाहती हूँ।<br />
<br />
गोदान उपन्यास में प्रेमचंद ने शहरी जीवन के इतने रंग-बिरंगी और प्रामाणिक चित्र उकेरे हैं कि हमें लगता है ये पात्र हमारे ही जीवन के अभिन्न अंग हैं। ऐसे ही पात्रों में हैं - मि. मेहता , मिस मालती और गोविंदी देवी। ये तीन ही क्यों ? क्यूंकि असल में ये तीन ही पात्र हैं जो अपने जीवन में सच्चाई , सरलता और प्रकृति के निकट हैं या जाना चाहते हैं। मि मेहता बहुत आदर्शवादी हैं , उनके विचार स्पष्ट और उच्च कोटि के हैं। मिस मालती शुरू में चहकती फुदकती तितली - सी लगती है किन्तु धीरे धीरे मि मेहता के संपर्क से उसका चरित्र उज्जवल होता जाता है और अंत में वह मि मेहता के लिए एक प्रेरणा बन जाती है। गोविंदी देवी के रूप में प्रेमचंद ने मि मेहता या यूँ कहना चाहिए की स्वयं के विचार अनुरूप एक आदर्श नारी , स्त्री, पत्नी का चित्रांकन किया है। और वह सिर्फ मूक या टाइप चित्रांकन नहीं है। वह बहुत सजीव है। उसका मनोविज्ञान रोचक है और उसके विचार उत्कृष्ट। <i> गोविंदी देवी प्रेमचंद के गोदान उपन्यास का ऐसा चरित्र है जो प्रेमचंद की सृष्टि होते हुए भी अपने में स्वतन्त्र हो गया है। जिसके विचारों की व्याख्या प्रेमचंद भी नहीं कर सके हैं।</i> <br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://pmpublications.in/Secure_pm_admin/upload/products/large/9789383009152.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="http://pmpublications.in/Secure_pm_admin/upload/products/large/9789383009152.jpg" height="400" width="255" /></a></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<br /></div>
विमेंस लीग के एक कार्यक्रम में मि मेहता भाषण देते हुए स्त्रियों को पुरुषों से अति श्रेष्ठ बताते हैं। मि मेहता कहते हैं की , "मैं प्राणियों के विकास में स्त्री के पद को पुरुषों के पद से श्रेष्ठ समझता हूँ उसी तरह जैसी प्रेम और त्याग और श्रद्धा को हिंसा और संग्राम और कलह से श्रेष्ठ समझता हूँ। अगर हमारी देवियाँ सृष्टि और पालन के देव-मंदिर से हिंसा और कलह के दानव - मंदिर में आना चाहती हैं तो उससे समाज का कल्याण न होगा। " आगे मेहता सेवा, समर्पण और त्याग के महत्त्व को उजागर करते हुए कहते हैं कि , "जहाँ सेवा का अभाव है, वही विवाह-विच्छेद है, परित्याग है, अविश्वास है। और आपके ऊपर, पुरुष-जीवन की नौका की कर्णधार होने के कारण जिम्मेदारी ज्यादा है। आप चाहिए तो नौका को आंधी और तूफानों में पार लगा सकती हैं। और आपने असावधानी की , तो नौका डूब जाएगी और उसके साथ आप भी डूब जाएँगी। "<br />
<br />
यह प्रेमचंद का आदर्शवाद है जो मि मेहता के मुख से बोल रहा है लेकिन इसके साथ ही एक गहन पारिवारिक यथार्थ भी गोविंदी देवी द्वारा रखा गया है। मि मेहता मिसेज गोविंदी देवी खन्ना से अपने भाषण के बारे में राय लेना चाहते हैं तब गोविंदी देवी कहती हैं , "पहली बात यह की भूल जाइये कि नारी श्रेष्ठ है और सारी जिम्मेदारी उसी पर है, श्रेष्ठ पुरुष है और उसी पर गृहस्थी का भार है. नारी में सेवा और संयम और कर्तव्य सबकुछ वही पैदा कर सकता है; अगर उसमे इन बातों का अभाव है तो नारी में भी अभाव रहेगा। <b>नारियों में आज जो यह विद्रोह है, इसका कारण पुरुष का इन गुणों से शून्य हो जाना है।</b> " शायद ये अंतिम पंक्ति विमेन्स लीग का मूल-वाक्य (मूल प्रेरणा) कही जा सकती हैं। लेकिन प्रेमचंद गोविंदी देवी के इस अति-यथार्थ विचार को विमर्श का विषय न बना पाये। शायद मि मेहता के चरित्र या उनके आदर्शवाद को वे ठेस न पहुँचाना चाहते थे।<br />
<br />
मेरे विचार में गोदान मात्र हिंदी-साहित्य की अमूल्य निधि नहीं है बल्कि हर भारतवासी के संघर्ष और संस्कृति की गौरव गाथा है। और सच कहूँ तो , यह उपन्यास सभी को जीवन में एक बार अवश्य पढ़ना चाहिए। बार - बार पढ़ने का मोह आप वैसे भी न त्याग पाएंगे !<br />
<br /></div>
@ngel ~http://www.blogger.com/profile/18294353918556424079noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-11983777872857487.post-58864301039741627632016-01-10T21:36:00.000-08:002016-01-10T21:36:16.873-08:00तीन : हाइकु<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
झरती पीली धूप<br />
हरे पत्ते से<br />
रंग संगीत मन का<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
चाल मौसम की </div>
<div style="text-align: center;">
सर्दी धुप या बारिश </div>
<div style="text-align: center;">
है नहीं पता कुछ भी </div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: right;">
रुआँसी सर्द हवा </div>
<div style="text-align: right;">
नमी है, तेरी याद </div>
<div style="text-align: right;">
कि आँख का पानी है </div>
<div style="text-align: right;">
<br /></div>
<div style="text-align: right;">
<br /></div>
<div style="text-align: right;">
<img src="http://41.media.tumblr.com/3fb2aad755c1a6229e64adbb0f535541/tumblr_nb2nudjxN41relrdqo1_400.jpg" style="text-align: left;" /> </div>
<div style="text-align: center;">
</div>
</div>
@ngel ~http://www.blogger.com/profile/18294353918556424079noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-11983777872857487.post-41739274248649940572016-01-07T02:27:00.001-08:002016-01-07T02:35:21.531-08:00कृष्णं शरणम् ममः - 2015 ने जो सिखाया <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"> ज़िन्दगी में हर पल सीखने का पल होता है। कभी आप मुस्कुराना सीख रहे होते हैं कभी खिलखिलाना , कभी चलना तो कभी आसमां में उड़ान भरना , कभी जीने की कला तो कभी जीवन को और सुंदर बनाने की कला। मेरे अनुसार व्यक्ति को सबसे पहले जीवन जीने की कला सीखनी चाहिए, और इसे हर पल सीखते रहना चाहिए, क्यूंकि जीवन के हर मोड़ पर नयी समस्या , नयी चुनौतियाँ हमें और तराशने के लिए हमारा इंतज़ार कर रही होती हैं। </span><br />
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"> 2014 फरवरी में शादी के बाद मेरे सामने नए लोग , नया माहौल था जिसमे एडजस्ट करने का सफर बहुत मुश्किल भरा था। 2015 का भी पूरा साल अपने बाहर और भीतर कई परिवर्तन करने में , कई बातें सीखने में गुज़र गया किन्तु 2015 में मैंने पाया की मैं पहले से अधिक स्थिर , समझदार , शान्त , आशावादी और अपने लक्ष्य के लिए अधिक प्रयत्नशील हुई हूँ। </span><br />
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><b><br /></b>
<b>तो पांच बातें जो मैंने वर्ष 2015 में सीखीं और जीवन में अपनाईं वे हैं -</b></span><br />
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<b><u><span style="font-family: Verdana, sans-serif;">१. दिमाग को क्लीन रखना -</span></u></b><br />
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"> लोगों की कही हुई बातों को दिल से लगा कर दिमाग में स्टोर करने से दिमाग डस्ट बीन बन जाता है। और ये मेरा दिमाग है कोई डस्ट बीन तो नहीं। आगे चल कर दिमाग की यह गन्दगी कई रोगों को जन्म देती है। इसीलिए मैंने कई तरीके अपनाये , मन को समझाना सीखा जिससे मैं फ़ालतू बातें भूल कर अच्छी बातों को दिल और दिमाग में जगह दे सकूँ।</span><br />
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><b><u><br /></u></b>
<b><u>२. हरी करे सो खरी - </u></b></span><br />
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"> अर्थात ईश्वर जो करता है हमारे अच्छे के लिए ही करता है। मैं पहले से यह मानती थी किन्तु २ साल संयुक्त परिवार में रहने के बाद मुझे और अच्छा अनुभव हो गया की भगवान जो करता है वो हमारे लिए बेस्ट है।</span><br />
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><b><u><br /></u></b>
<b><u>३. कृष्णं शरणम् ममः -</u></b></span><br />
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"> जीवन में कई समस्याएं ऐसी आती हैं की हम कितना हाथ पैर मार लें , हमारे पास उसका कोई समाधान नहीं होता। ऐसे में कई लोग डिप्रेशन या अन्य बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। जब लगता है की समय ही इस परिस्थिति से निकाल सकता है , हमारे हाथ में कुछ नहीं है तब इष्ट देव की शरण में जाना, खुद को इष्ट देव को सौंप देना सबसे बड़ा कारगर उपाय है। मैंने भी मुश्किल परिस्थितियों में यही उपाय अपनाया और "हे कृष्ण मैं आपकी शरण में हूँ , आप जैसा ठीक समझें वैसा करें " इसी प्रार्थना को दोहराया है।</span><br />
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<b><u><span style="font-family: Verdana, sans-serif;">४. कर्म के बंधन को समझना -</span></u></b><br />
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"> ध्यान से सोचने पर लगता है की पति-पत्नी से लेकर सारे रिश्ते कर्म के बंधनों से जुड़े हैं। रिश्तों के माध्यम से हम कर्मों का हिसाब चूका रहे हैं। ब्रह्माकुमारीज़ की सिस्टर शिवानी कहती हैं कि , कोई आपके साथ बुरा करता है तो यह कह कर छोड़ दो की - इट्स ओके। पिछले जन्म का हिसाब चुकता हुआ। किन्तु आपके रिएक्ट करने से कर्म का बंधन बनता जाता है। इसे खत्म करने के प्रयास करने चाहिए न की बढ़ाने के ।</span><br />
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<b><u><span style="font-family: Verdana, sans-serif;">५. लक्ष्य को विज़ुवलाइज़ करना -</span></u></b><br />
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"> जब आपको लगता है की आप अपनी मर्ज़ी से अपनी ज़िन्दगी में कुछ परिवर्तन नहीं कर सकते , तब अपनाइये विज़ुअलाइज़ेशन की थेरेपी। आप जो ज़िन्दगी में चाहते हैं , जैसा चाहते हैं , बस उसी के बारे में सोचिये, डे-ड्रीम करिये, उस तस्वीर को अपनी और खिंचीये , अट्रेक्ट कीजिये , एक दिन वो तस्वीर आपकी असल ज़िन्दगी बन जाएगी। हाँ मैं यही करती हूँ। हर दिन हर पल मैं उन चीज़ो के बारे में सोचती हूँ जो मुझे अपनी ज़िन्दगी में चाहिए और मैं जानती हूँ की इतना चाहने पर एक दिन वे मुझे जरूर मिलेंगी। </span><br />
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<br />
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><img src="http://www.churchmilitant.com/images/uploads/news_feature/2015-12-26-niles-d.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;" /></span></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: small;">वर्ष 2015 को विदाई </span></td></tr>
</tbody></table>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;">नोट - <i>yah post Indi Spire ke topic- <a href="https://www.indiblogger.in/indispire_topic.php?topic=98" style="background-color: #f8f8f8; color: #3463b1; font-weight: bold; margin: 0px; padding: 0px;">What are the 5 Lessons 2015 has taught you?</a> ke reply me likhi gayi hai. </i></span><br />
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<br />
<div>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span></div>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif;"> </span></div>
@ngel ~http://www.blogger.com/profile/18294353918556424079noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-11983777872857487.post-80354223812636644602015-12-15T21:53:00.000-08:002015-12-15T21:53:07.381-08:00संघर्ष!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
इस जीवन में<br />
इस संसार में<br />
जी रही हैं कितनी ज़िन्दगियाँ <br />
मिट रही हैं कितनी बस्तियाँ<br />
<br />
इस एक समय में<br />
समानांतर<br />
कितने इतिहास रहे बन<br />
संघर्ष! संघर्ष! संघर्ष !<br />
हर आदमी की अपनी एक लड़ाई<br />
<br />
कितने विलग अलग-थलग<br />
हो गए हैं हम<br />
की नहीं नाता रहा एक के दर्द का<br />
दूसरे के मर्ज़ से<br />
<br />
मैं स्त्री हूँ<br />
वह दलित<br />
और<br />
तीसरा आदिवासी<br />
हम सिर्फ पाठ्यक्रम के अंश हैं<br />
विमर्श के असंख्य प्रश्न हैं<br />
और<br />
बस विस्मित आँखें<br />
पूछती एक ही प्रश्न,<br />
"क्या अब भी कुछ शेष है घटने को<br />
मानवता का क़त्ल बार बार होने को। "<br />
<br />
(आदिवासी विमर्श पढ़ते हुए)<br />
<br />
<br />
<br />
<br /></div>
@ngel ~http://www.blogger.com/profile/18294353918556424079noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-11983777872857487.post-86196613951502009942015-11-22T22:16:00.001-08:002015-11-22T22:19:29.839-08:00रैक्व और जबाला<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<div style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;">
</div>
<br />
<br />
रिक्व ऋषि के पुत्र महान तपस्वी रैक्व अपने जीवन में किसी स्त्री से नहीं मिले थे। उन्हें ज्ञान ही नहीं था की स्त्री पदार्थ कैसा दीखता है और उससे कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए। आंधी तूफ़ान की कृपास्वरूप उनकी भेंट होती है राजा जानश्रुति की एकमात्र सुंदरी कन्या जबाला से। जबाला को देखकर वे उसे देवपुरुष समझते हैं क्यूंकि देवपुरुष का ही चेहरा इतना दिव्य, चिकना, बाल रेशम की तरह मुलायम और आँखे मृग की तरह हो सकती हैं। किन्तु जबाला उन्हें बताती हैंकि वे स्त्री हैं और रिक्व को उनसे लोक- सम्मत व्यवहार करना चाहिए। <br />
रैक्व जबाला से मोहित हो जाते हैं और जबाला के जाने के पश्चात हमेशा के लिए उनकी पीठ में सनसनाहट रह जाती है। यह कहानी है हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास "अनामदास का पोथा " की। जिसमें कि सिर्फ रैक्व ऋषि का प्रसंग ही उपनिषद में प्राप्त ही बाकी पूरी कथा लेखक की कल्पना का चमत्कार है। <br />
<br />
दरअसल , कहानी में रैक्व की पीठ में सनसनाहट एक अजीब रहस्य है। जो मुझे तब समझ आया जब मैं पति से दूर मायके आई और २ दिन के बाद पति की गर्दन में मोच आ गयी। पति कहने लगे आ रही हो घर ? मैंने कहा , नहीं। तो वे झल्लाकर बोले , पता है कितनी परेशानी में हूँ मैं। कुछ देर बाद मुझे समझ आया , कहीं रैक्व की भी कुछ ऐसी ही परेशानी तो नहीं थी। जबाला को पाने की अभिलाषा ही उनके पीठ की सनसनाहट का मूल था। अक्सर शारीरिक पीड़ा के मूल में मनोवैज्ञानिक कारण छिपे होते हैं।<br />
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<a href="http://images3.uread.com/productimages/images200/652/9788126707652.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://images3.uread.com/productimages/images200/652/9788126707652.jpg" height="320" width="212" /></a></div>
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ख़ैर , मैं तो ससुराल आ गयी हूँ। रैक्व और मेरे पति की पीड़ा का रहस्य भी समझ आ गया। किन्तु एक बात अभी भी मेरे मन में घूम रही है , वह यह कि ,हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की विचारधारा तो पकड़ में आ जाती है किन्तु उनकी शैली गज़ब की है। जिस प्रकार से कल्पना में वास्तविकता का पुट डालते हैं , उनके सरिका लेखक पूरी दुनिया में मिलना मुश्किल है। यह निश्चय ही एक शोध का विषय है। द्विवेदी जी के अन्य उपन्यासों की तरह ही यह भी अत्यंत गूढ़ ,प्रेरणादायक और मनोरंजक है। आखिर, रैक्व में द्विवेदी जी की ही झलक तो दिखती है। <br />
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@ngel ~http://www.blogger.com/profile/18294353918556424079noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-11983777872857487.post-28617222469010054222015-10-27T07:20:00.000-07:002015-10-27T07:20:16.768-07:00खामोशियाँ आवाज़ हैं , इन्हे सुनने तो आओ कभी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
यहाँ मैं एस जे बन कर नहीं लिख रही , न ही ऐंजल या जेनी बन कर। यहाँ मैं , मैं हूँ अपने असली नाम के पीछे भी छिपी असली मैं। मैं जानती हूँ , यहाँ तुम मुझे नहीं पढोगे न ही वो। मेरा उससे ज़िन्दगी भर का रिश्ता है। पिछले जन्म में भी कुछ ऐसा ही करीबी रिश्ता रहा होगा। पर अक्सर सोचती हूँ तुमसे पिछले जन्म का ऐसा क्या रिश्ता है की , इस जन्म है भी और नहीं भी। होकर भी नहीं है और नहीं होकर भी है।<br />
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डायरी में पुरानी लिखी कुछ लघु कहानियाँ पढ़ रही थी। जो दरअसल कहानियाँ न होकर हमारे बीच घटे भावनात्मक किस्से ही थे। कहानी एक बहुत खूबसूरत कला है सच। सच ! मैंने इस कला में अपनी बेहद दिली यादें संभाल राखी हैं, जिन्हे मेरे अलावा कोई अनकोड नहीं कर सकता। मेरे और सिर्फ तुम्हारे सिवा।<br />
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एक बात कहूँ। मेरे लिखने के इंस्पिरेशन भी तुम हो और यह चाहत कि शायद कभी तुम मुझे पढ़ो , और.… बस ऐसे ही खामोश रहो। <br />
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@ngel ~http://www.blogger.com/profile/18294353918556424079noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-11983777872857487.post-74361563575280596082015-08-25T20:32:00.001-07:002015-08-25T20:32:56.526-07:00बस यादें !<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
वक़्त नहीं है खुद के लिए भी<br />
जाने , वो भी इसी हालत में होंगे<br />
सोचते होंगे मेरी ही तरह<br />
फिर कभी फुर्सत में मिलेंगे ,<br />
फिर कभी फुर्सत में मिलेंगे। <br />
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चंद यादें भी अब याद आने से नहीं आती हैं<br />
दिख जाए उनका नाम कहीं ,<br />
तब ज़िंदगी पुरानी याद आती है। <br />
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