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परीक्षा

और अब जब वह जानती थी कि... ख़ैर! उसने धीरे से उसके बाल सहलाते हुए, उसके चौड़े ललाट पर हाथ फेरते हुए कहा, "अगली बार तुम कब आओगे?" "मैं नहीं जानता। मैं कब कहां जाऊंगा, सोचना नहीं चाहता।" "हम्म..."  इतने में मंदिर की सीढ़ियां चढ़ते हुए एक कृशकाय औरत की आकृति दिखाई दी। वह हांफते हुए कहने लगी मानो नीचे खड़े लगभग सौ लोगों की जुबान वह ही बन गई है। "गुरुजी हम सब आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।" "हां, चलो।" कहते हुए वे चले गए। बिना उसकी ओर देखे। तभी उसे याद आया, बच्चे घर पर उसकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। मंदिर के अंदर भी नहीं गई वो, बाहर से ही लौट आई। बच्चों से कह कर तो आयी थी कि आज अमावस्या है इसीलिए मंदिर में दीया करने जाना है। बच्चों ने इतना गौर नहीं किया। मां के धर्म - कर्म में उन्हें कोई रुचि नहीं थी। लेकिन उसी का मन पूछने लगा था, क्या जाना चाहिए? फिर उसने जैसे स्वयं को समझाते हुए कहा था, " गुरुजी को मिल लूं, शायद आखरी बार।" और अब वे चले गए थे। लेकिन ये क्या... मंदिर की सीढियों पर वे अपना तांबे का पात्र भूल गए। ज्योति ने उत्साहित होकर पा
सुनो ज़रा करीब आओ अपनी आँखें मुझे दिखाओ इन साधारण सी दिखने वाली आँखों से तुम्हें ये दुनिया जादूभरी कैसे दिखती है, बताओ हां! तुम्हारे सीने पर हाथ रख तुम्हारी धड़कनों को महसूस करते हुए मुझे लगता है कि इनके भीतर जो रूह है तुम्हारी वह कभी किसी जादूगर के वश में रही होगी

बाबा

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बाबा न जाने कितनी तरह की मशीनों से घिरे हुए थे। कई नलियां उनके शरीर में घुसी हुईं थीं - लगता था मानो आज वे पतली-छोटी नालियां इंसान से बड़ी हो गयी हैं. ...वह बाहर खड़ा है। अस्पताल के इस भारी वातावरण में उसे नींद नहीं आती। उसकी बड़ी माँ बाहर हाल में फर्श पर लेटी है और नाना जिसे वह बाबा कहता है अंदर रूम में लेटे हैं। वह बाहर कॉरिडोर में घूमता है पर यहां बहुत भीड़ है हर मरीज के रिश्तेदार जहाँ-तहाँ पसरे हुए हैं। समय और मौसम से बेखबर, सफ़ेद ट्यूबलाइट की धुंधली रौशनी में हर कोई एक-जैसा ही दिख रहा है. - सबके चेहरे पर एक ही भाव है पीड़ा का। कभी - कभी वह सोचने लगता है कि ज्यादा पीड़ा किसे हो रही है मरीजों को , जो अंदर कई नालियों और मशीनों के चंगुल में फंसे हैं या इन मरीजों के रिश्तेदारों को। रिश्तेदारों के चेहरे की पीड़ा देखना जब असहनीय हो जाता है तब वह बाबा के पास चला जाता है। वे अक्सर आँख बंद करके शांत लेटे होते हैं। उनका चेहरा हालांकि सूख गया था पर फिर भी उस सूखे कमल-समान चेहरे पर एक तेज़ दिखाई पड़ता था बिलकुल वैसा जैसा उसने भगवानों की तस्वीरों में उनके चेहरे पर देखा है।  दस दिन हो गए

गुनाह

कुछ मासूम से गुनाह मैं आज कबूल करती हूं तुमसे बातें की मैंने बिना तौल औ' बेतुकी जैसे तुम हो ही न वहां मैं खुद से ही करती थी बातें तुमसे सपने किए साझा और सोचा नहीं कि सपने तो किसी की सबसे कीमती चीज होते हैं तुमसे बांटा दुख तुम्हारे कंधे पर आंसू ढलकाए क्या पता था कि ये एक मोम का तुम्हारे सीने पर धीरे-धीरे पिघलना था और सच कहूं तो जब तुम्हारा सरल प्रेम स्वीकार किया ये मेरे लिए उतना ही सहज था जितना ब्रह्मांड का अपनी गति से चलना... ये मेरे कुछ मासूम से गुनाह हैं जिन्हें मैं आज कबूल करती हूं

गिरवी

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रूह  मेरी गिरवी  रख  लो तुम और बदले  में  कुछ भी  देना  नहीं ये  तन तो मिट्टी की तिजोरी है और मुझे संभालना ही कब आया कीमती चीजों को कभी मेरा तो सब कुछ लूट ही जाना है लूट ही जाएगा तमाम ख्वाहिशें, उमंग और जीने की चाह भी एक दिन बिक जाएगी लेकिन रूह बचेगी तुम्हारे पास और कीमत उसकी बढ़ती ही जाएगी रूह मेरी गिरवी रख लो तुम और बदले में कुछ भी देना नहीं

इमरोज़

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तुम्हारे बारे में सोचते हुए मैं अक्सर उसी के बारे में सोचती रही हूँ और यह भी कि प्यार क्या ऐसा ही होता है... कि सदियों तक तुम्हारे नाम कोई जुदा न कर पाए कि मरने के बाद भी वो वहीं रहे, बिल्कुल वैसे ही हमेशा की तरह कि वो अनजाने ही तुम्हारी पीठ पर किसी और का नाम लिख दे और तुम फिर भी उससे बेपनाह मोहब्बत करो क्यूंकि उसकी मोहब्बत भी उसकी है और तुम भी कि तुम पेंटर से कवि बन जाओ और वो कवि से एक औरत - जो इश्क़ में मुकम्मल हो गयी है प्यार क्या ऐसा ही होता है इमरोज़? तुम्हारे बारे में सोचते हुए फिर अक्सर मैं उसके बारे में सोचने लगती हूँ.

तपस्या

मौन बन कर एक अमृत बूंद मेरी रगों में दौड़ रही है... और भीतर सब दिशाएं गूंज रही हैं जन्मों जन्मों की तपस्या का इंच भर भी अगर जीवन के कंटीले रास्तों में मैंने खो दिया है तो हे मेरे हिमालय! मुझे पता है कि अनंत तपस्या के लिए मुझे एक बार हमेशा के लिए तुमसे कहाँ मिलना है.