बोझ

किसी भी लड़की के लिए इससे अच्छी बात क्या हो सकती है की उसका एक घर हो, अच्छी गृहस्थी  हो, पति बहुत प्यार करने वाला हो और सास-ससुर बेटी की तरह रखते हों।  प्रीतम के भी ऐसा ही था।  लेकिन कभी कभी वह खुद से पूछ लिया करती की ," खुश रहने के लिए क्या यह काफी है ?" जवाब जो भी हो , उसका कोई मतलब नहीं था अब।  शादी को तीन साल होने आ गए थे।  कई दिन अच्छे - से, एक जैसे जाते , किन्तु बीच-बीच में  उसका मन उखड जाता।  तब वह बीते दिनों को याद करने लगती।  मनजीत  की याद तो उसे सबसे ज्यादा आती थी , आखिर वो एक अनसुलझी पहेली जो था।  कॉलेज के आखरी दिन उसने ग्राउंड के पीछे बुला कर प्रीतम से कहा था की , "तुम मुझे अच्छी लगती हो। " प्रीतम ने " हम्म " कह कर बात टाल दी थी।  तब उसे समझ ही नहीं आया , अच्छा लगने  का क्या मतलब है। 

आज सुबह प्रेस के कपड़ों की गठरी उठा कर वह चल दी थी।  जब प्रीतम का मन उखड जाता तो किसी भी बहाने घर से पैदल निकल लिया करती थी। आज सुबह से ही उसे जैसे उसे कांटे चुभ रहे थे कि , "कुछ अच्छा नहीं लग रहा।" वह मन ही मन सोचती की ,"अच्छा तो यह होता की मैं यहाँ  से कहीं दूर होती जहाँ रोज़ कई लोगों से मिलती , अपना मन पसंद काम करती , अपनी प्रतिभा को पहचानती, उसे निखारती  और मेरी तरह के दो-चार लोगों के साथ मिलकर दिल की बातें करती। कितने दिन हुए , किसी से दिल खोलकर बातें  भी तो नहीं की। " प्रीतम सोचते-सोचते गठरी का बोझ लिए न जाने कितना आगे निकल आई थी और धोबी की दूकान पीछे ही रह गयी।   

  


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