याद
बहुत दिनों बाद
वे मुझे फिर याद आई
वे मुझे फिर याद आई
जिन्हें मैंने तीन अप्रेल कि शाम को
पहली बार उसी रेस्टोरेंट में देखा था
और उसके बाद शायद एक या दो बार और देखा हो
एक सुंदर कांच के महल में कैद
वो एक सुनहरी और एक चमकीली मछली .
एक बक्से में बंद
बिना गुनाह के सजा झेलती
उपर से नीचे
नीचे से उपर चक्कर काटती
बक्से से निकलने को बैचेन मन ...
मैं बहुत दूर बैठी उन्हें ताकती
और कुछ सोच न पाने कि स्तिथि में थी
कोई चीज़ थी हमारे बीच
एक सी
ज़िन्दगी में कैद फिर भी
ज़िन्दगी से दूर
ये तड़प थी
बन्धनों की .
उन मछलियों की याद
अभी भी ज़ेहन में किसी
जिंदा तस्वीर कि तरह "कैद" है.
"कोई चीज थी हम दोनों में एक जैसी,
ReplyDeleteजिन्दगी में कैद फिर भी जिन्दगी से दूर"
निशब्द करती पंक्तियाँ.....
मछली के दर्द को समझा आपने...और अपना दर्द समझा..क्या बात है जी,
कुंवर जी,
अच्छी सोच को असल ज़िन्दगी से जोड़ा है आपने..
ReplyDeleteअच्छी कृति...
आभार
स्तिथि ...स्थिति
ReplyDeleteजिंदगी में कैद फिर भी जिंदगी से दूर ...
मार्मिक !
Thanks to all of you :)
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