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आधे - अधूरे : क्या पूर्णता की तलाश वाजिब है?

बी ए में किसी वर्ष मोहन राकेश का "आधे-अधूरे" नाटक पढ़ा था। लेकिन तब मन में क्या विचार थे, कितना नाटक के मर्म को समझ पायी थी याद नहीं। इस साल फिर पढने का मौका मिला। जीवन में उस मोड़ पर खड़ी  हूँ की इसके मर्म को सिर्फ समझ ही नहीं सकती , समझ कर ज़िन्दगी बदलने वाला निर्णय भी ले सकती हूँ। इसीलिए इस पर विचार करना जरुरी है ... शायद आप भी समझ पाएं, मैं किस दिशा में सोच रही हूँ।  1969 में मोहन राकेश ने आधे-अधूरे नाटक लिख कर आने वाले युगों- युगों की व्यैक्तिक और वैवाहिक जीवन की समस्या को शब्दबद्ध कर दिया है। इस नाटक का नायक "अनिश्चित" है , क्यूंकि वह कोई एक व्यक्ति नहीं, आधुनिक व्यक्ति का प्रतिनिधि है। इसकी नायिका भी आधुनिक चेतना से युक्त एक "स्त्री" है। दोनों अपनी-अपनी जगह पर, अपने नामों के पीछे, साधारण पुरुष और स्त्री हैं ... क्यूंकि वे अधूरे हैं , अपने अधूरेपन में पूर्णता की तलाश लिए हुए ... लेकिन, नाटक में समस्या का केंद्र बिंदु स्त्री है। स्त्री के माध्यम से ही  नाटककार ने अपना भाव प्रकट किया है। निर्देशक ओम पूरी के शब्दों में, "चुनाव के एक क्