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Showing posts from 2013

अपने अपने अजनबी - अज्ञेय

अज्ञेय निसंदेह पिछली सदी के महानतम रचनाकारों में से एक हैं।  उनके चिंतन की गहराई इतनी है कि कई बार प्रबुद्ध सुधि पाठक भी उस स्तर को छु नहीं पाता।  उनका रचना संसार इतना वृहद् है और सभी विधाओं में उनकी इतनी  पकड़ है कि  ये कहना मुश्किल है कि  वे श्रेष्ठ कवि थे या उपन्यासकार या निबन्ध लेखक या यात्रा - वृत्तान्त लेखक। उनके तीन उपन्यासों में से मैंने बहुत पहले शेखर एक जीवनी के दोनों भाग पढ लेने के बाद , हाल ही में   अपने अपने अजनबी  को पढ़ा, जो कि निश्चित ही चिंतन की कसौटी पर रख कर आपको चुनौती देता   है. और आप  … चिंतन के ही मृग्जाल में खो जाते हैं  …  यह छोटा सा दिखने वाला उपन्यास , जीवन के तीन सबसे बड़े पहलुओं को समेटे हुए है - मृत्यु  ( नहीं मृत्यु तो जीवन के बाद आनी चाहिए - - - इसका मतलब चार पहलु हुए? - - - लेकिन जीवन और मृत्यु दो  भिन्न पहलु कहाँ हैं ?) अतः - जीवन-मृत्यु , स्वतंत्रता-मुक्ति और काल. इन तीनो ही विषयों पर अज्ञेय जी ने बड़ी सूक्ष्मता से विचार किया है. उपन्यास में दो ही मुख्य चरित्र हैं -   योके  , एक जवान लड़की जो बर्फ में घुमने के  लिए जाती है और स्वयं को  सेल्मा

आधे - अधूरे : क्या पूर्णता की तलाश वाजिब है?

बी ए में किसी वर्ष मोहन राकेश का "आधे-अधूरे" नाटक पढ़ा था। लेकिन तब मन में क्या विचार थे, कितना नाटक के मर्म को समझ पायी थी याद नहीं। इस साल फिर पढने का मौका मिला। जीवन में उस मोड़ पर खड़ी  हूँ की इसके मर्म को सिर्फ समझ ही नहीं सकती , समझ कर ज़िन्दगी बदलने वाला निर्णय भी ले सकती हूँ। इसीलिए इस पर विचार करना जरुरी है ... शायद आप भी समझ पाएं, मैं किस दिशा में सोच रही हूँ।  1969 में मोहन राकेश ने आधे-अधूरे नाटक लिख कर आने वाले युगों- युगों की व्यैक्तिक और वैवाहिक जीवन की समस्या को शब्दबद्ध कर दिया है। इस नाटक का नायक "अनिश्चित" है , क्यूंकि वह कोई एक व्यक्ति नहीं, आधुनिक व्यक्ति का प्रतिनिधि है। इसकी नायिका भी आधुनिक चेतना से युक्त एक "स्त्री" है। दोनों अपनी-अपनी जगह पर, अपने नामों के पीछे, साधारण पुरुष और स्त्री हैं ... क्यूंकि वे अधूरे हैं , अपने अधूरेपन में पूर्णता की तलाश लिए हुए ... लेकिन, नाटक में समस्या का केंद्र बिंदु स्त्री है। स्त्री के माध्यम से ही  नाटककार ने अपना भाव प्रकट किया है। निर्देशक ओम पूरी के शब्दों में, "चुनाव के एक क्

गदल - रांगेय राघव

गदल कहानी पढ़ी। रांगेय राघव की कहानी। एक ऐसे चरित्र की कहानी जिसका चरित्र चित्रण उतना ही मुश्किल है, जितना खुद का। उसे, जैसी वो है, वैसे देखने पर लगता है मानो, खुद ही को किसी और की नज़रों से देख रहे हों। इसीलिए, उसे जैसी वो है, वैसे देखना मुश्किल है , बेहद मुश्किल।  45 वर्ष की गदल , पति के मर जाने पर अपना पूरा कुनबा छोड़ , 32 साल के मौनी की घर जा बैठती है। मन में है , देवर को नीचा दिखाना है। वही देवर जिसमें इतना गुर्दा नहीं की , भाई के चले जाने के बाद भाभी को अपना ले ... जिसके नाम की रोटी तोड़ता है उसे दुनिया के सामने अपना लेने में भला क्या बुराई ... लेकिन देवर दौढी ढीठ है , डरपोक है , लोग  क्या कहेंगे यही सोच सोच कर मरता रहता है।  गदल औरत है लेकिन किसी की फ़िक्र नहीं करती। वही करती है जो अपने दिल में जानती है की सही है। वही करती है जो उसे करना होता है। औरत क्या चाहती है , तुम यही पूछते हो न। गर औरत तुम्हे अपना मानती है , तो चाहती है की तुम हक़ जताओ , फिर चाहे दो थप्पड़ ही मार कर क्यूँ न जताना पड़े। मौनी गुस्से में पूछता है , "मेरे रहते तू पराये मर्द के घर जा बैठेगी ?&quo

खुद को समझने के क्रम में

खुद को जानने , समझने , पहचानने का भी कैसा मोह है। परम सुख भी। परम आवश्यकता भी। लेकिन समझने के क्रम में जितने भी विचार बुलबुले की भाँती उठते हैं मानो सिर्फ खंड-सत्य है लेकिन खंड सत्य तो हैं ... मुझे लगने लगा है , मैं इस दुनिया की हूँ ही नहीं। और अगर हूँ भी तो वह साधू जो माया और विरक्ति की देहलीज़ पर खड़ा कभी इस ओर  कभी उस ओर सुनी आँखों से ताकता है और जब माया से मुह फेर उसकी बोझिल पलकें विरक्ति के घने वटवृक्ष के नीचे हमेशा के लिए आँखे मूँद लेना चाहती हैं। लेकिन ये खेल विकट है। इतनी जल्दी रुक जाता तो बात क्या थी। आत्मा को बोझ असहनीय है। फिर वो चाहे पत्थर का हो या फूल का। और फिर कहा था न , " दान को भी समर्पण कर देना ..." मैं नहीं जानती इन शब्दों का सही अर्थ क्या है। लेकिन एक बात मन में उठ रही है। कुछ भी लेकर रखना नहीं है सब दे देना है । कुछ भी साथ लेकर नहीं चलना - सुन्दर असुंदर , प्रिय - अप्रिय सब यहीं छोड़ चल देना है। क्यूंकि जीवन की यात्रा मन, बुद्धि, शरीर की यात्रा नहीं है। जीवन की यात्रा आत्मा की यात्रा है। और आत्मा को कोई भी बोझ असहनीय है।    

मेरे देवता !

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मेरे देवता !  दिनभर की खिट -पिट , झगडा जंजाल  एक ही ले पर चलती रेलगाड़ी सी ज़िन्दगी  बिसरने पर और बिसरता  जा रहा समय  घडी की टिक-टिक, एक काम दूसरा काम  हज़ारों विचार, लाखों प्रश्न, करोड़ों ख्वाब  और ख्वार होती ज़िन्दगी  सुनी बालकनी से सड़कों पर चलती जिंदगियों को  ताकती आँखे  कभी तो खत्म होना है ये , या  कभी नहीं ? सपनो में कोई सार नहीं ! पर जब तब आँखों में तैर आता है एक द्रश्य -  लाल चुनर और सिंदूरी मांग  और तभी जाग उठते हैं वो संस्कार , वो सपने -  की मेरा सर झुके जिन चरणों में ,  वो पूज्य हों ! वो ... मेरे देवता हों !

समर्पण की कसौटी

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एक ही बात रह रह कर मन में आती है , तू उनकी होने वाली है। मनसा होना एक बात है, कर्म से, रीती से बंधन में बंध  जाना दूसरी। क्या उनको पति रूप में पाने के लिए तैयार हूँ? सारे भाव उनको समर्पित करने को तैयार हूँ? क्या ये बड़ी बात है ? नहीं तो , क्या ये इतनी छोटी सी  बात है? क्या यह सच में होना है ? नहीं भी होना , तो मन अभी से इतने भावों से घिरा क्यूँ है? क्यूँ लगता है की , वो यहीं हैं , मेरी इस बचकानी सी बैचैनी पर मंद मंद मुस्कुरा रहे हैं। सच कहूँ तो लगता है ये समर्पण की कसौटी है। मैंने बंधन-मुक्त होने का भरसक प्रयास किया। रिश्तों को नाम देने से कतराती रही। तो शायद ये गुस्साए होंगे, बोले होंगे , थोडा बंधन का रस उन्हें भी दिया जाये। तभी से मुझे बंधन में बांधना शुरू किया। खुद ही कभी भैय्या बन कर आते , कभी बहन , कभी सहेली , कभी माँ की ममता के बंधन से बाँध लेते ... मैं बंधन से छूटने को छटपटाती भी , और बंधन से मुग्ध भी हो जाती ... ऐसा  बंधन भी कितना काम्य है ... लेकिन समर्पण ! समर्पण आसान नहीं ...  विद्यानिवास मिश्र जी कहते हैं , " ज्ञान , प्रकाश , अच्छाई तो हर एक दे सकता है और बड़े सच्

राधा भेली मधाई

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"... अनुखन माधव - माधव रटते रटते राधा माधव हो गयी और माधव के रूप में अपने को स्थापित करते ही बैचैनी कम होने के बजाये और बढ़ गयी , बैचैनी राधा के लिए , जो अब वह नहीं रही और फिर माधव बनी राधा  राधा बनकर माधव को सांत्वना का सन्देश भेजती है , सन्देश पहुंचा नहीं की विह्वल होकर पुनः माधव बन जाती है और एक ही विजड़ित चित्त के दो पात चिर जाते हैं : एक राधा दूसरा माधव , दोनों और आग पकड़ चुकी है, बीच में प्राण एक कीड़े की तरह फंसा हुआ अकुला रहा है .... " ( राधा माधव हो गयी ; विद्यानिवास मिश्र  ) एक बात बताओ , रुकमनी को तो पत्नी होने का गौरव मिला था, फिर भी युगों युगों से माधव  के साथ राधा ही क्यूँ प्रतिष्ठित है ? क्या विरह का स्थान इतना श्रेष्ठ है? राधा माधव कौन हैं? इश्वर? आद्यशक्ति और नारायण ? प्रेमी प्रेमिका ? या भारतीय गूढ़ चिंतन के कोई प्रतीक ? मेरा मन कहता है मिश्र जी आधुनिक युग के प्रकांड पंडित एवम सांस्कृतिक चिन्तक हैं, भावों से ओत-प्रोत भाषा में इन्होने भी लिखा है, लेकिन जब राधा-माधव को "जैसे वो हैं " वैसे  समझने की बात आती है, तब  शायद सूर से अधिक सफल कोई न हो स

गोदान, पुनर्नवा, और स्त्री

बहुत समय हुआ जब मन में पहली बार ये सवाल उपजा था की- मुझे क्या करना है, जॉब या कुछ नहीं। मैंने कुछ नहीं को चुना - फिर भी बहुत कुछ कर लिया - एम् ऐ हिंदी में, और दादाजी की सेवा, घर के काम भी सिख लिए, और स्वाध्याय का आनंद भी पा लिया। फिर मन में एक सवाल खड़ा हुआ है - अबकी बार शादी का , पति , परिवार, और भविष्य का है। लेकिन जवाब इस बार भी उन्ही विचारों के इर्द-गिर्द मंडरा रहा है। जॉब नहीं करना - ऐसा तो बिलकुल भी नहीं जिसमे दम घूंटे , जीने के मायने जाते रहे, और इंसान एक पहिया बनकर रह जाए। जब गाडी ही उसने बनायी है तो वो मात्र पहिया क्यूँ बना रहे? और फिर ये भी तो उसके हाथ में है की उसे पैदल चलना है या गाडी चाहिए। मुझे इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता . सिर्फ ये जरुरी है की रास्ता इतना सुहावना हो की रास्ता ही मंजिल लगने लगे, मंजिल और रास्ते का फर्क मिट जाए। लेकिन बात कुछ और है। बात है स्त्री की, स्त्री-पुरुष कर्तव्य की, विवाह की। जबसे प्रेमचंद का गोदान पढ़ा है, मन में मिस्टर मेहता के स्त्री समानता के सम्बन्ध में कहे विचार घूमते रहते हैं। स्त्री और पुरुष सामान हो ही नहीं सकते। स्त्री का दर्जा  पुर

पुनर्नवा - हजारी प्रसाद द्विवेदी

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बात बस इतनी सी है, मैं खुद को रोक नहीं पा रही। नहीं, इतनी सी बात नहीं हो सकती। मुझे हजारी प्रसाद जी के उपन्यास पढ़ कर न जाने क्या हो जाता है। होता तो निर्मल वर्मा के उपन्यास पढ़कर भी है, लेकिन वो मन को अस्त-व्यस्त कर बुरी तरह से हिल देते हैं, अँधेरे का चरम दिखा देते हैं। लेकिन हजारी प्रसाद जी के लेखन में कोई अलौकिक शक्ति है। ऐसा लगता है जैसे सत्य सौ परदे चीर कर आँखे चौंधिया देता है। वर्मा का लिखा हुआ आत्मानुभाव सत्य-यथार्थ है, हजारी जी का अलौकिक सत्य, जिसका कोई विकल्प नहीं, कोई भी नहीं । एक मित्र के सहयोग से पुनर्नवा उपन्यास हाथ लग गया । , सच में ये उपन्यास , पुनर्नवा ही है। इसके बारे में कुछ भी कहना मेरे लिए संभव नहीं। हाँ इतना जरुर कहूँगी की, जिसने हजारी जी के उपन्यास नहीं पढ़े, उसने हिंदी साहित्य में कुछ नहीं पढ़ा, क्यूंकि इनके उपन्यास हिन्दू संस्कृति का निचोड़ तत्व हैं। और हजारी जी सिर्फ संस्कृति के ही मर्मग्य नहीं बल्कि उत्तम कथाकार भी हैं। उनके उपन्यास में जितनी श्रेष्ठ कोटि का भाव तत्व है, उतने ही श्रेष्ठ कोटि का कलात्मक गुण है। कथा को वे जिस क्रम में पेश करते हैं वह  पूर