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Showing posts from February, 2012

इंतज़ार

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  आइ एम रिअली वेरी सोरी , मैं उस दिन घर नहीं आ सका. नहीं... कोई बात नहीं... मुझे इंतज़ार करना पसंद है ओह.. सच तुम मेरा इंतज़ार कर रही थी ? हाँ... शायद... या इस बात का कि तुम आओ ही न और ज़िन्दगी बस यूँही एक इंतज़ार में कट जाये... *-------------------------------*----------------------------------* "ज़िन्दगी क्या है?" "एक लम्बा इंतज़ार ! प्यार... और फिर बिछड़ जाने का डर ..." *----------------------------------*--------------------------------* कभी खुद को रोक नहीं पाती और पतझड़ कि टूटी टहनी सी गिर पड़ती हूँ...धीरे से खुद से पूछती हूँ... क्यूँ तोडा वो मौन, वो अंतहीन इंतज़ार...? ... फिर एक हवा कंपकपाती छु कर निकलती है... भीतर ही कहीं से आवाज़ आती है...इंतज़ार का ही नया एक अध्याय शुरू करने के लिए... 

सच्चा सुख और सृजन

जीवन के एक सूत्र को भी किसी माध्यम से जाहिर कर देने में कितना सुख है. सच्चा सुख और सृजन दो अलग बातें हो ही नहीं सकती. चाहे किसी कला के माध्यम से सृजन हो या प्रेम में अभूतपूर्व क्षणों का सृजन हो हमेशा सृजन में सच्चा सुख छिपा होता है.

शेखर एक जीवनी: जीवन अभी और भी बाकी है...

शेखर चलता रहा चलते चलते जब थक गया तो भी बैठा नहीं सिर्फ रुक गया पर चलने की प्रक्रिया को मन में दुहराता रहा चलना ज़रूरी हो गया था ... हो जाता है कभी कभी... "इट्स डल टू थिंक अबाउट आईदीअलिजम" ! शारदा ! शान्ति ! शशि ! मन में कोई हंसा , क्या तुने सभी को अपने अंश के रूप में ही  चित्रित किया? हाँ उससे परे मन देख भी कहाँ सका है? पर... साहित्य ! साधना ! सेवा ! पुरुष होने का दंभ. कुछ है जो मैं समझ नहीं पा रही. कुछ है जो मैं समझना नहीं चाहती. सहानुभूति  नहीं पैदा करना चाहती मन में शायद. शेखर इन सब से कुछ उपर है. बेचने के लिए लिखा हुआ साहित्य नहीं. ये द्वंद्व ! ... वह इक्कीस  साल का शेखर और... एक पोथा लिखा "हमारा समाज' , कितने में बिकेगा, दो रूपए. हूँ. और फिर दुनिया बदल जाती है. 'हमारा समाज' बिक जाता है. बेच दिया जाता है. समाज में कितना कुछ है जिसे बदलने की आग मन में धधकती है. पर यहाँ ... सबसे मन दूर चला जाता है.. निरे अन्धकार में... एक बचकानी सी बात मन में आई है...शेखर के आगे की जीवनी लिखूं. या क्यूँ न शशि की ही एक जीवनी लिख डालूं कितना कुछ होगा शशि के म

बाणभट्ट कि आत्मकथा - महामाया

महामाया  - "पुरुष वस्तु-विछिन भाव रूप सत्य में आनंद प्राप्त करता है, स्त्री वस्तु-परिगृहीत रूप में रस पाती है. पुरुष निःसंग है , स्त्री आसक्त, पुरुष निर्द्वंद्व है, स्त्री द्वन्द्वोमुखी , पुरुष मुक्त है स्त्री बद्ध. पुरुष स्त्री को शक्ति समझ कर ही पूर्ण हो सकता है, पर स्त्री , स्त्री को शक्ति समझ कर अधूरी रह जाती है. ... तू क्या अपने को पुरुष और मुझे स्त्री समझ रहा है?  मुझमे पुरुष कि अपेक्षा प्रकृति कि अभिव्यक्ति कि मात्र अधिक है , इसीलिए मैं स्त्री हूँ. तुझमे पृकृति कि अपेक्षा पुरुष कि अभिव्यक्ति अधिक है , इसीलिए तू पुरुष है. " "...परम शिव से दो तत्त्व एक ही साथ प्रकट हुए थे - शिव और शक्ति. शिव विधिरूप है और शक्ति निषेधरूपा. इन्ही दोनों तत्वों के प्रस्पंद-विस्पंद से यह संसार आभासित हो रहा है. पिंड में शिव का प्राधान्य ही पुरुष है और शक्ति का प्राधान्य नारी है. ... जहाँ कहीं अपने आप को उत्सर्ग करने कि, अपने-आपको खपा देने कि भावना प्रधान है वहीँ नारी है. जहाँ कहीं दुःख सुख कि लाख लाख धाराओं में अपने को दलित द्राक्षा के समान निचोड़ कर दूसरे को तृप्त करने कि भावना

गुनाहों का देवता

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 बड़ा अद्भुत है ये! एक माँ अच्छे से जानती है बच्चे को कब क्या खुराक देनी है वैसे ही भगवान् जानते होंगे कि मन को कब किस खुराक कि जरुरत होती है. इस महीने दो अद्भुत  पुस्तकें पढ़ी. एक, बाणभट्ट कि आत्मकथा, जिसने ये बताया कि , स्वयं को निःशेष भाव से दे देना ही वशीकरण है. दूसरी, गुनाहों का देवता, जिसने ये बताया को स्वयं को निःशेष भाव से कैसे दिया जाता है. मन में कब से इच्छा थी धर्मवीर भारती कि , गुनाहों का देवता पढने कि, पर पढने के बाद मन अजीब सा हो गया है. मैं यह तय नहीं कर पा रही हूँ कि ऐसा क्या था इसमें जिसने मुझे छू लिया हो या मुझसे कुछ मेरी ही भूली कहानी कह दी हो. हाँ! इसे पढ़ते समय कुछ ऐसा लगा -  जब स्वयं का ही जीवन एक प्रेत कि गुफा जैसा हो, मन ने कभी देवता कि प्रतिमा खंडित कर मंदिर को अपवित्र कर दिया हो,और  गुनाहों का देवता जब खुद में कहीं ही बसा हो तो उसे अक्षरों में पढने कि क्या जरुरत.  खैर! उपन्यास पड़ने का बाद अब मुझे लेश मात्र भी आश्चर्य नहीं कि क्यूँ यह इतना प्रसिद्द है. " ये आज फिजा खामोश है क्यूँ, हर ज़र्र को आखिर होश है क्यूँ?  या तुम ही किसी के हो न सके, या कोई त