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Showing posts from March, 2010

निज भाषा का प्रेम

मन में कई विचार दौड़ रहे हैं ... पढ़ रही हूँ इंग्लिश पर विचार हिंदी भाषा को लेकर हैं.  क्या हिंदी केवल भाषा है? यही सवाल में इंग्लिश के लिए भी पूछ सकती थी , पर जवाब में तभी दे पाती जब इंग्लिश बोलने वाले देश में रहती. भाषा हमारी संस्कृति से सीधा सम्बन्ध रखती है. किसी भी देश की आत्मा को समझना हो तो उस देश के साहित्य को पढना चाहिए. हिंदी हमारी केवल भाषा नहीं है. कई देशो में हो सकता है की उस देश की भाषा , भाषा से अधिक कोई महत्व न रखती हो , पर हमारे लिए निश्चित रूप से हिंदी का अनूठा स्थान है. मुझे कभी कभी ऐसा लगता है की , ये हमारी गलत धारणा है की हम चीजों को चुनते हैं , सही मायने में चीज़े हमें चुनती है. कहा जाता है , भगवान् जब तक न बुलाये , हम उस मंदिर जा ही नहीं पाते. ठीक उसी तरह , हम चीजों को जितना प्यार देंगे वो हमारी बनकर रहेंगे. हिंदी को हमने बहुत प्यार दिया है , इसे राष्ट्र भाषा बनाने में क्या कसार नहीं छोड़ी , ओर आज तक भी अंग्रेजी के प्रकोप से इसे बचाने के लिए हम इसे अपने गले से लगाए हुए हैं. ये हमारा प्यार है हमारी भाषा के प्रति. ओर देखिये ये हिंदी हमारा प्यार हमें कैसे लौटाती ह

भाषा का द्वंद्व

 परीक्षा शुरू होने में मात्र अट्ठारह दिन शेष हैं. चिंता स्वाभाविक है. पर बैचैनी ओर भी बहुत चीजों की वजह से है . में अंग्रेजी साहित्य की विद्यार्थी हूँ. यह मेरा हमेशा से प्रिय विषय है. पर साथ ही हिंदी साहित्य भी मुझे बेहद पसंद है शायद इसका श्रेय मेरी मम्मी को जाता है जो की हिंदी साहित्य की लेक्चरार है या फिर मेरी रूचि को जिसकी वजह से मैंने दोनों साहित्य  ब. ए तक पढ़े.  परन्तु अब लगता है बहुत बड़ी गलती की दोनों साथ पढ़कर . एक द्वंद्व सा छा गया है जीवन में. जब कॉलेज में थी तब इंग्लिश की क्लास के बाद इंग्लिश ही बोलती थी , इंग्लिश में ही सोचती थी , ब्रिटेन की दुनिया में खोयी रहती थी , ओर जब हिंदी की क्लास से निकलती , मन में पन्त की , तुलसी दास की पंक्तियाँ घुमती थी .   दोनों साहित्य पढने से एक अच्छी बात यह हुई की मुझे यह समझ में आया की चाहे वह भारत हो या विदेश ,  मानव मूल्य , उनकी भावनाए सब जगह लगभग एक सी हैं. दोनों साहित्य को  साथ में पढने से एक दुसरे से अच्छे से सम्बंधित कर पायी. एक ओर बात जो मैंने गौर की वह ये की दोनों साहित्य की धारयिएन साथ ही बही या एक का प्रभाव दुसरे पर पढ़ा. जै

ढलते सूरज की यादे ओर नए सूरज का इंतज़ार

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ढलता सूरज                                                                          बुझते  दीपक की लौ के समान चमका दो पल के लिए आँखों को चकाचौंध कर  दिल में उमंग जगाकर जोश को सिंहासन पर बैठा कर सपनो में सिरहन पैदा कर बुझ गया नहीं! वो सूरज  था ढल गया. ये रात क्यूँ आती है? पर उससे पहले ये शाम भी तो कुछ गाती  है;  कुछ उदासी के गीत, जो बुझे दीपक की लौ पर उठते धुए के समान  मन पर काला साया बिखेर देती है... ये शाम वक़्त से पहले बूढ़े हुए किसी बच्चे सी गुमसुम रहती है रात तो फिर भी  बहुत तो नहीं पर कुछ आराम सा  देती है... सूरज ढलने से लेकर  में उस वक़्त का इंतज़ार करती हूँ जो इस शरीर के सभी दरवाज़े हौले से बंद कर मेरे सपनो में खो जाएगा  जब तक नया सूरज फिर से आएगा जब तक कोई उस ढलते सूरज की यादो को मिटाएगा.