Posts

Showing posts from February, 2011

बहरूपिया

Image
कभी कभी  एक अजीब सा ख्याल  मेरे सामने आ खड़ा होता है, कि मोहब्बत मुझे तुमसे है या उस बहरूपिये से जो गैरहाजरी में तुम्हारी तुमसे भी अच्छी भूमिका निभाता है...  

सुनो!

Image
रुखा सुखा जीवन हुआ मरणासन्न मन. सुनो! मुझे अपने शब्दों से एक बार फिर सींचो, प्रेम का पानी , डांट की खाद, और धुप का मार्गदर्शन दो , मुझे अपनी कल कल बहती हंसी से  एक बार फिर सींचो. सुनो! मुझे अपने शब्दों से एक बार फिर सींचो. 

सुगंध का संसार

Image
दो फूल खिले  भिन्न भिन्न क्यारियों में भिन्न रूप , भिन्न रंग , और भिन्न जीवन जीने की तैयारियों में. एक मंजिल  और एक सोच दोनों यूँ  बन गए दोस्त. पर था भिन्न पथ  और भिन्न जीवन की शाखा छा गयी ऐसे   जीवन में निराशा. फिर भी दोनों ने न खोया  अपना होश, संग सौ गुने विश्वास  के  लगाया दुगुना जोश एक दिन आया ऐसा, उनकी महक हुई एकाकार, रचाया फिर उन्होंने भिन्न एक सुगंध  का संसार. 

एक प्रेम

एक प्रेम जी रही हूँ मन ही  मन मैं  उनके संग एक प्रेम जीना नहीं चाहती जीवन भर बस पल और अनगिनत पल जी रही हूँ उसके संग एक प्रेम झूठ  है प्रेम नहीं बस कमी पूर्ति है जीना पड़ रहा है कुछ के संग... एक प्रेम  बचा लिया था स्वयं के लिए उसी के टुकड़े  बाँट रही हूँ सभी को जो बचा नहीं पाए एक टुकड़ा स्वयं  के लिए...

छोड़ कर गए हो तुम

छोड़ कर गए हो तुम ,  तुम ही , आओगे? या फिर सोचूंगी  की  बहा दिया दरिया में,  राख , जो कुछ हुआ - तन और  मन... कोशिश करुँगी  जी सकूँ पुनर्जन्म , क्यूंकि मरने के लिए अब बचा नहीं है मुझमे कुछ. 

रसीदी टिकिट

खुशवंत सिंह जी ने एक बार अमृता से कहा , तुम्हारा प्रेम प्रसंग बस इतना ही है , यह तो एक स्टाम्प पर भी लिखा जा सकता है... बस अमृता जी को बात जम गयी और अपनी आत्मकथा का नाम उन्होंने रसीदी टिकिट ही रख दिया. ये बात हमें हमारे प्रोफेसर ने एक दिन पढ़ते वक़्त किसी प्रसंग के सन्दर्भ में बतायी थी. मैं सोचती रही की इसे बिना कन्फर्म किये यहाँ कैसे लिखूं और आज इत्तेफाक ऐसा हुआ की दैनिक भास्कर में खुशवंत जी का रसीदी टिकिट के उपर एक छोटा सा लेख आया जिससे  मुझे रसीदी टिकिट के नाम का रहस्य बताने का मौका  मिल गया.  अमृता प्रीतम को आज से पहले कभी नहीं पढ़ा था. हाँ कई बार नाम जरुर सुना था , तब सोचती थी की पता नहीं कैसा लिखती होंगी.  एक इंग्लिश के प्रोफेसर ने कभी पढ़ाते पढ़ाते आदतन इसे (रसीदी टिकेट) अच्छी पुस्तक जान कर हमें सुझाया की हम भी पढ़ें. एक पुस्क्तक मेले में ये हाथ आई तो खरीद ही ली. आज जब इसका एक एक पृष्ठ  पलट रही हूँ तो लग रहा है की सच में यह एक आत्म-कथा है. या की अमृता के शब्दों में आत्मा की कथा. अमृता ने इसी विचार को मन में रख कर पुस्तक का काया-कल्प किया होगा. आत्मा पर जब गैर जरुरी नाम , घटनाएं

...

बहुत दिनों बाद हिंदी की कोई बेहतरीन पुस्तक हाथ आई. पर इसे मैंने एक बार में नहीं पढ़ लिया ... धीरे-धीरे एक-एक अक्षर पि कर और घटनाएं जी कर लगभग  दो -तीन दिन में समाप्त की. पुस्तक थी - रसीदी टिकिट , अमृता प्रीतम की आत्मकथा. मैंने कई बार यह दुविधा व्यक्त की है की जब मैं अंग्रेजी पढ़ती हूँ तो मन और जिबान अंग्रेजी हो जाते हैं और जब हिंदी पढ़ती हूँ तो हिंदी. पर यह पुस्तक इस सबसे  से ऊपर थी. अमृता जी के ही भावों में - दर्द का कोई नाम या शक्ल नहीं होती. चाहे उसकी व्याख्या अंग्रेजी में हो या हिंदी में , वो सच्चा हो तो आत्मा के भीतर उतर जाता है... यूँ ही मन को बहला रही हूँ की , कभी कुछ बन पायी की आत्मकथा लिख सकूँ तो इस बात का ज़िक्र जरुर करुँगी की रसीदी टिकिट का मेरे मन के उपर क्या प्रभाव पड़ा. और अगर नहीं तो , खैर ! उसकी कल्पना में वक्त जाया नहीं करना चाहती.