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कुछ पंक्तियाँ

ग्यानी अपनी आँखें खोलो इस माया जाल से मुक्त हो लो जिसने जो कहा वो उसी के पास रह जाना है शब्द भ्रहमाडं में घूमते रहने हैं और हर शब्द के साथ एक कहानी स्वयं को कहानियों से मुक्त कर लो बंधनों से छूट जाओ बंधनों को छोड़ दो ग्यानी अपनी आँखें खोलो

आकांक्षा

देखो , मेरी बातों का कुछ मतलबल मत समझना मैं किसी के द्वारा समझे जाना नहीं चाहती हाँ मैं अनन्त में खो जाना चाहती हूँ जैसे कोई छोटा - सा तारा  अपनी मस्ती में ही घुमा करता हो कार्य-कारण के बंधन से मुक्त होने-ना होने की सीमा से परे  …

मैं जानती हूँ

मेरे सपनों को पूरा करने के लिए तुम मीलों तक दौड़  जाते  हो मैं जानती हूँ कभी कभी तुम बहुत अकेले पड़ जाते हो दुनिया से लड़ने की खूब ताक़त है  तुममें पर हार तुम सिर्फ अपनों से जाते हो मेरे सपनों को  … हाँ ! बहुत चाहते हो मुझे कितने कष्ट , मेरे लिए उठाते हो मैं जानती हूँ कभी कभी तुम बहुत अकेले पड़ जाते हो

शोध - समस्या

काफी समय से शोध के लिए विषय तलाश रही हूँ।  मन में कई प्रश्न घूम रहे हैं - 1   विषय चुनने का सबसे सही तरीका क्या है। 2   किस तरह के विषय का चुनाव करना चाहिए जिससे स्वयं की ज्ञानपिपासा भी शांत हो और समाज को भी कुछ नया दे सकें। और अंत में सबसे महत्वपूर्ण 3    मेरी रूचि किस विषय, विधा और  क्षेत्र में है। मेरे पास शायद पहले और तीसरे प्रश्न का ही उत्तर है।  तीसरे से शुरू करते हैं। 3   मेरी रूचि स्त्री से जुड़े मुद्दों और सवालों में है। एक स्त्री क्या चाहती है ? समाज में उसकी क्या स्थिति है ? स्त्री अपनी चेतना के विकास क्रम में कहाँ तक पहुंच पायी है? 1   जहां तक मेरी समझ है , विषय चुनने का सबसे उम्दा तरीका है पहले स्वयं के स्तर पर  , स्वयं की रूचि के अनुसार विषय का अध्ययन करना। विषय के संबंध में अपनी समझ विकसित करना फिर उसमे से एक समस्या चुनना ।  विषय चुनाव के दौरान मैंने नासिरा शर्मा , दीप्ति कुलश्रेष्ठ , ममता कालिया , पदमा  सचदेव और प्रभा खेतान को पढ़ा और मुझे लगता है मुझे सबसे अधिक नासिरा शर्मा और प्रभा खेतान ने आकर्षित किया।  नासिरा शर्मा पर पहले ही बहुत कार्य हो चूका है। प्रभ

उपन्यास संसार

कल ही एक उपन्यास ख़त्म किया है।  ये मेरा सौभाग्य रहा है की पी एच डी के बहाने मैंने कोर्स वर्क के दौरान बहुत से उपन्यास पढ़ लिए।   सबसे पहले मैं उन सभी किताबों का ज़िक्र करुँगी जो  मैंने पढ़ी और मुझे   पसंद आयी। उपन्यास -  धुंध और धुँआ (दीप्ति कुलश्रेष्ठ ) सफर के बीच (दीप्ति कुलश्रेष्ठ ) भटको नहीं धनञ्जय (पद्मा  सचदेव ) धर्मक्षेत्रे  dharmshetre kurukshetre अँधेरे का ताला (ममता कालिया ) शाल्मली  (नासिरा शर्मा) छिन्मस्तता (प्रभा खेतान) इन किताबों को पढ़ने के दौरान ब्लॉग लिखना संभव नहीं हो पाया इसीलिए कागज़ पर ही सभी उपन्यासों से सम्बंधित अपनी भावनायें लिख ली।  शायद यह मैंने अच्छा भी किया।  इन सभी में से मेरे प्रिय उपन्यास हैं - भटको नहीं धनञ्जय और शाल्मली।  शायद  फिर किसी दिन इनके बारे में कुछ कहूँ।  हालांकि की आशा है की शाल्मली पर लिखा गया मेरा रिसर्च पेपर जल्द ही किसी मेगज़ीन में छपे।  
न यंहा सुकूँ है न वहां चैन मैं खुद को खोती जा रही हूँ ़ ़ शायद कभी खुद को पाया भी था 

परीक्षित

"तुम्हे पता है तुम बहुत खुदगर्ज़ हो " " हाँ मुझे पता है. … आई लव यू  परीक्षित " " फिर भी मुझे छोड़ कर जा रही हो। " " ज़रूरी है  … क्यूंकि   … " "मुझसे ज्यादा प्यार तुम खुद से करती हो " "शायद  … लेकिन मैं कैसे बताऊँ तुम्हे की इस शहर में मेरा दम घुटता है। । इन लोगों के बीच  … इस भीड़ में  … मेरे सपने अलग हैं  … हम कभी साथ रह ही नहीं सकते परीक्षित " , इससे पहले परीक्षित श्रुति को रोक पाता , श्रुति आठ साल के रिश्ते को पीछे छोड़ कर चली गयी। पचास - पचास माले की ऊँची इमारतों के पीछे सूरज होले - से गुम  हो गया।  परीक्षित अंधेरों को नापते हुए बालकनी में आ कर खड़ा हो गया. उसके एक हाथ में से सफ़ेद कागज़ हवा में उड़ गए  … वो सिर्फ कागज़ नहीं थे श्रुति के सपनों का स्केच था - एनजीओ की बिल्डिंग का स्केच  … परीक्षित की आँखों में न आंसू थे , न हाथ में शराब  … उसके दिल में बस एक गहरा चुभने वाला अफ़सोस था कि वो श्रुति को वक़्त पर  ये विश्वास नहीं दिला सका कि वो भी उसके सपनों का हिस्सेदार है।

आशय

वो नहीं जानता उसे क्या करना है। मैं नहीं जानती मुझे क्या करना है। सब लोग कहते थे प्यार करना आसान है ( और हमें आसानी से हो भी गया) बात ये नहीं की हम खुश नहीं हैं, लेकिन हम ये नहीं जानते इसके आगे क्या है … आशय अक्सर कुछ उलझा-सा, कुछ भी कहीं से भी जोड़ने में रहता है … मैं अक्सर दूर कहीं जाकर एक नयी ज़िन्दगी शुरू करने की सोचने लगती हूँ … मुझे लगता है कमी मुझमें। उसे लगता है कमी उसमे है। हम बहुत खुश हैं … कल शाम चाय पीते - पीते  वो आकाश में ऊँचे एयरोप्लेन की उड़ान देखने लगा (वो हमेशा से पाइलट बनना चाहता था।) कभी - कभी सोचती हूँ क्या हम वो सब कुछ-  सब कुछ कर सकते हैं जो करना चाहते हैं, जिस तरह से जीना  चाहते हैं। अक्सर आशय को देख कर सोचती हूँ, बिना अर्थ के जीवन कितना निरर्थक है खाली है,  कब ढूंढ  सकेगा वो अपने जीवन का आशय, और मैं …कब पा सकुंगी आशय अपने जीवन का ।