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Showing posts from March, 2013

समर्पण की कसौटी

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एक ही बात रह रह कर मन में आती है , तू उनकी होने वाली है। मनसा होना एक बात है, कर्म से, रीती से बंधन में बंध  जाना दूसरी। क्या उनको पति रूप में पाने के लिए तैयार हूँ? सारे भाव उनको समर्पित करने को तैयार हूँ? क्या ये बड़ी बात है ? नहीं तो , क्या ये इतनी छोटी सी  बात है? क्या यह सच में होना है ? नहीं भी होना , तो मन अभी से इतने भावों से घिरा क्यूँ है? क्यूँ लगता है की , वो यहीं हैं , मेरी इस बचकानी सी बैचैनी पर मंद मंद मुस्कुरा रहे हैं। सच कहूँ तो लगता है ये समर्पण की कसौटी है। मैंने बंधन-मुक्त होने का भरसक प्रयास किया। रिश्तों को नाम देने से कतराती रही। तो शायद ये गुस्साए होंगे, बोले होंगे , थोडा बंधन का रस उन्हें भी दिया जाये। तभी से मुझे बंधन में बांधना शुरू किया। खुद ही कभी भैय्या बन कर आते , कभी बहन , कभी सहेली , कभी माँ की ममता के बंधन से बाँध लेते ... मैं बंधन से छूटने को छटपटाती भी , और बंधन से मुग्ध भी हो जाती ... ऐसा  बंधन भी कितना काम्य है ... लेकिन समर्पण ! समर्पण आसान नहीं ...  विद्यानिवास मिश्र जी कहते हैं , " ज्ञान , प्रकाश , अच्छाई तो हर एक दे सकता है और बड़े सच्

राधा भेली मधाई

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"... अनुखन माधव - माधव रटते रटते राधा माधव हो गयी और माधव के रूप में अपने को स्थापित करते ही बैचैनी कम होने के बजाये और बढ़ गयी , बैचैनी राधा के लिए , जो अब वह नहीं रही और फिर माधव बनी राधा  राधा बनकर माधव को सांत्वना का सन्देश भेजती है , सन्देश पहुंचा नहीं की विह्वल होकर पुनः माधव बन जाती है और एक ही विजड़ित चित्त के दो पात चिर जाते हैं : एक राधा दूसरा माधव , दोनों और आग पकड़ चुकी है, बीच में प्राण एक कीड़े की तरह फंसा हुआ अकुला रहा है .... " ( राधा माधव हो गयी ; विद्यानिवास मिश्र  ) एक बात बताओ , रुकमनी को तो पत्नी होने का गौरव मिला था, फिर भी युगों युगों से माधव  के साथ राधा ही क्यूँ प्रतिष्ठित है ? क्या विरह का स्थान इतना श्रेष्ठ है? राधा माधव कौन हैं? इश्वर? आद्यशक्ति और नारायण ? प्रेमी प्रेमिका ? या भारतीय गूढ़ चिंतन के कोई प्रतीक ? मेरा मन कहता है मिश्र जी आधुनिक युग के प्रकांड पंडित एवम सांस्कृतिक चिन्तक हैं, भावों से ओत-प्रोत भाषा में इन्होने भी लिखा है, लेकिन जब राधा-माधव को "जैसे वो हैं " वैसे  समझने की बात आती है, तब  शायद सूर से अधिक सफल कोई न हो स