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Showing posts from April, 2013

गदल - रांगेय राघव

गदल कहानी पढ़ी। रांगेय राघव की कहानी। एक ऐसे चरित्र की कहानी जिसका चरित्र चित्रण उतना ही मुश्किल है, जितना खुद का। उसे, जैसी वो है, वैसे देखने पर लगता है मानो, खुद ही को किसी और की नज़रों से देख रहे हों। इसीलिए, उसे जैसी वो है, वैसे देखना मुश्किल है , बेहद मुश्किल।  45 वर्ष की गदल , पति के मर जाने पर अपना पूरा कुनबा छोड़ , 32 साल के मौनी की घर जा बैठती है। मन में है , देवर को नीचा दिखाना है। वही देवर जिसमें इतना गुर्दा नहीं की , भाई के चले जाने के बाद भाभी को अपना ले ... जिसके नाम की रोटी तोड़ता है उसे दुनिया के सामने अपना लेने में भला क्या बुराई ... लेकिन देवर दौढी ढीठ है , डरपोक है , लोग  क्या कहेंगे यही सोच सोच कर मरता रहता है।  गदल औरत है लेकिन किसी की फ़िक्र नहीं करती। वही करती है जो अपने दिल में जानती है की सही है। वही करती है जो उसे करना होता है। औरत क्या चाहती है , तुम यही पूछते हो न। गर औरत तुम्हे अपना मानती है , तो चाहती है की तुम हक़ जताओ , फिर चाहे दो थप्पड़ ही मार कर क्यूँ न जताना पड़े। मौनी गुस्से में पूछता है , "मेरे रहते तू पराये मर्द के घर जा बैठेगी ?&quo

खुद को समझने के क्रम में

खुद को जानने , समझने , पहचानने का भी कैसा मोह है। परम सुख भी। परम आवश्यकता भी। लेकिन समझने के क्रम में जितने भी विचार बुलबुले की भाँती उठते हैं मानो सिर्फ खंड-सत्य है लेकिन खंड सत्य तो हैं ... मुझे लगने लगा है , मैं इस दुनिया की हूँ ही नहीं। और अगर हूँ भी तो वह साधू जो माया और विरक्ति की देहलीज़ पर खड़ा कभी इस ओर  कभी उस ओर सुनी आँखों से ताकता है और जब माया से मुह फेर उसकी बोझिल पलकें विरक्ति के घने वटवृक्ष के नीचे हमेशा के लिए आँखे मूँद लेना चाहती हैं। लेकिन ये खेल विकट है। इतनी जल्दी रुक जाता तो बात क्या थी। आत्मा को बोझ असहनीय है। फिर वो चाहे पत्थर का हो या फूल का। और फिर कहा था न , " दान को भी समर्पण कर देना ..." मैं नहीं जानती इन शब्दों का सही अर्थ क्या है। लेकिन एक बात मन में उठ रही है। कुछ भी लेकर रखना नहीं है सब दे देना है । कुछ भी साथ लेकर नहीं चलना - सुन्दर असुंदर , प्रिय - अप्रिय सब यहीं छोड़ चल देना है। क्यूंकि जीवन की यात्रा मन, बुद्धि, शरीर की यात्रा नहीं है। जीवन की यात्रा आत्मा की यात्रा है। और आत्मा को कोई भी बोझ असहनीय है।    

मेरे देवता !

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मेरे देवता !  दिनभर की खिट -पिट , झगडा जंजाल  एक ही ले पर चलती रेलगाड़ी सी ज़िन्दगी  बिसरने पर और बिसरता  जा रहा समय  घडी की टिक-टिक, एक काम दूसरा काम  हज़ारों विचार, लाखों प्रश्न, करोड़ों ख्वाब  और ख्वार होती ज़िन्दगी  सुनी बालकनी से सड़कों पर चलती जिंदगियों को  ताकती आँखे  कभी तो खत्म होना है ये , या  कभी नहीं ? सपनो में कोई सार नहीं ! पर जब तब आँखों में तैर आता है एक द्रश्य -  लाल चुनर और सिंदूरी मांग  और तभी जाग उठते हैं वो संस्कार , वो सपने -  की मेरा सर झुके जिन चरणों में ,  वो पूज्य हों ! वो ... मेरे देवता हों !