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Showing posts from August, 2012

अमृता प्रीतम : एक मर्द , एक औरत

"तुमने पिक्चर ऑफ़ डोरियन ग्रे पढ़ी है?" मर्द ने पुछा?  "   पिक्चर ऑफ़ डोरियन ग्रे   "?  "ओस्कर वाइल्ड का मशहूर उपन्यास. " "मेरा ख्याल है, कोलेज के दिनों में पढ़ी थी, पर इस वक्त याद नहीं...शायद उसमे पेंटिंग की कोई बात थी.." "हाँ... पेंटिंग की. वह एक बड़े हसीं आदमी की पेंटिंग थी..." "फिर शायद वह आदमी हसीं नहीं रहा था और उसके सात ही उसकी पेंटिंग बदल गयी थी .. कुछ ऐसी ही बात थी... " "नहीं, वह उसकी दिखती शक्ल के साथ नहीं  बदली थी, उसके मन की हालत से बदली थी. रोज़ बदलती थी." "अब मुझे याद आ गया है. आदमी उसी तरह हसीं रहा था पर पेंटिंग के मुह पर झुर्रियां पढ़ गयी थी..." .... (अमृता प्रीतम : एक मर्द , एक औरत से उद्धरण )   पिछले दिनों में पढ़ी हुई हिंदी कहानियों में से समबसे उम्दा कहानी!!!

अमृता प्रीतम : "सात सौ बीस कदम".

न जाने क्या मन हुआ, निर्मल वर्मा की ' वे दिन' के  साथ   अमृता प्रीतम की एक कहानियों की किताब उठा ली - नाम है - "सात सौ बीस कदम".  अमृता प्रीतम की आत्म-कथा पढ़ी थी - रसीदी टिकिट' तभी से मन में था की इन्हें और पढना है... अभी सिर्फ दो कहानियाँ पढ़ी होंगी, लेकिन मन में कई विचार आ रहे हैं.  मन में एक तरह का द्वंद्व हमेशा चलता रहता है. एक तरफ मन कहता है, जैसे सब लिख रहें हैं, वैसे तुम भी लिखो , लेकिन फिर, वर्मा और प्रीतम जैसे लेखकों को पढ़कर मन पर लगाम लग जाती है. मन कहता है - नहीं! लिखो लेकिन तब जब शब्द दिल से निकले, अनुभूति में खुद के अनुभवों की महक हो , वही लिखो जो भोगा हो, देखा हो और देख कर दिल बैठ गया हो या आह उठी हो... और लिखकर दिखाओ केवल तब जब खुद को संतुष्टि हो - जब तुमने वैसा लिखा हो, जैसा तुम्हे पढना पसंद हो... 

निर्मल वर्मा - और आत्मालाप

मैंने सोचा नहीं था इतना जल्दी निर्मल वर्मा को पढ़ पाऊँगी, पर हार्डी के बाद उन्हें पढना अच्छा लग रहा है , ऐसा जैसे, 'दुःख' के एक चेप्टर से दूसरे चेप्टर पर आ गयी हूँ...  बिलकुल अंदेशा न था, पर ऐसा ही हुआ, इस उपन्यास ने मुझे (मेरे अंदर बहुत कुछ जिसे मैंने एकत्रित कर लिया था उसे) decenter कर दिया है. जैसे चार पाए पर खड़े दो लड़खडाते पैरों के निचे से पाए खीच लिए हो... पूरी रात सो नहीं पायी (उपर से तेज़ थर्राती बारिश की आवाज़..).. पता नहीं रात में मैंने कितनी बार तड़पते हुए, गुस्से में बिलबिलाते हुए खुद से कहा - this text is cruel. ये मुझे अंदर ही अंदर खाते जा रहा था... the narrative is so haunting... जैसे कांच पर ढूंढ़ जम गयी हो ओर साधारण चीज़ भी असाधारण हो गयी हो... just like a blur image...देख लेने पर भी कुछ देखा न हो, बहुत कुछ छुट गया हो ऐसा एहसास - एक अनाम अधूरापन जो खुद की तहों को खोलने-टटोलने की कोशिश करता है - ओर जिसमे बहु पीड़ा होती है ... वर्मा का यह उपन्यास, सच कहूँ तो, पीड़ा-दायक है, it dissects, चीर-फाड़  करता है . आप चिल्लाते रहेंगे की कोई फोड़ा नहीं है - पर

'एक चीथड़ा सुख'

"...उसके ड्राइंग मास्टर क्लास में कहते थे - देखो, ये सेब है. यह सेब टेबल पर रखा है. इसे ध्यान से देखो. सीढ़ी आँखों से - एक सुन्न निगाह सुई की नोक-सी सेब पर बिंध जाती. वह धीरे धीरे हवा में घुलने लगता गायब हो जाता. फिर, फिर अचानक पता चलता - सेब वहीँ है, मेज पर जैसा का तैसा - सिर्फ वह अलग हो गया है, कमरे से, दूसरे लड़कों से, मेज ओर कुर्सियों से - और पहली बार सेब को नयी निगाहों से देखा रहा है. नंगा, साबुत, संपूर्ण, ... इतना संपूर्ण की वह भयभीत सा हो जाता है, भयभीत ही नहीं- सिर्फ एक अजीब - सा विस्मय पकड़ लेता, जैसे किसी ने उसकी आँखों से पट्टी खोल दी है... "   ( 'एक चीथड़ा सुख'  ,  निर्मल वर्मा  ) कई दिनों से मेरी नज़र उस पर पड़ी थी. माँ ने देख लिया था मैं उनकी लाइब्रेरी से छेड़खानी कर रही हूँ. जैसे ही उन्होंने मेरे हाथ में निर्मल वर्मा की 'एक चीथड़ा सुख' देखी, उन्होंने सर ना में हिलाया , जैसे उन्हें इस किताब पर मेरा स्पर्श पसंद न हो... उस वक्त मैंने किताब को और दूसरी किताबों के बीच दफना दिया... पर उसी वक्त कहीं मैं दिल में जानती थी की कुछ दिन बाद मैं फिर इस