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Showing posts from 2011

समंदर और एक परछाई

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वो पगली लड़की थी न - हाँ वही! अब नहीं रही !!! बस पगली नहीं रही --- मैं उसे ढूंढ़ रही हूँ, ढूंढ़ रही हूँ उसे , उस पगली लड़की को वो जो ... पता नहीं... शायद खो गयी है जो कहीं कभी मिल जाये खुद को खुद से दूर भी कहाँ कोई समंदर होता है... --- एक परछाई रात में नींदों को करती है तंग पानी और बहुत गहरा पानी एक आकृति जो बहुत दूर पानी के बीचों बीच मेरी ओर हाथ हिला रही है एक परछाई फिर से फिर से मुझे अपने पास बुला रही है ---

अज्ञात

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अज्ञात !! ये तुम्हारे लिए तुम्हारे उन शब्दों के लिए जिन्होंने मुझे दो पल के लिए छुआ... हाँ अब तुम नहीं हो, पर हो आस-पास क्यूंकि हर ख़ास एहसास कि तरह हो तुम भी एक अज्ञात. 

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी मुझसे यूँ मौज करा रही है, धोखे से अपने पास बुला रही है, कह क्यूँ नहीं देते तुम उससे, वो मर तो कबकी चुकी है, बस कुछ पल मेरा दिल बहला रही है.  *------------------*--------------------* ज़िन्दगी में एक तालीम ऐसी भी हो कि जीना सिखा दे, क्यूंकि पढ़े लिखे लोग भी अक्सर ज़िन्दगी से हार कर मर जाते हैं

दो तरफ़ा प्यार

यहाँ दुःख  - सुख, प्रशंसा और प्रोत्साहन भी एक तरफ़ा है  ये कैसा दो तरफ़ा प्यार है.

तुम्हारे जन्मदिन पर

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"मैं तुम्हारे जन्मदिन पर  क्या दूं? कोई शब्द, कविता या..." कुछ नहीं! बस तुम्हारी यादों से  रहित   एक मौन कि गूँज .  P.S. - On your birthday (Image source : Google)

शहर

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किसी ने सच कहा था                         कभी किसी शहर से दिल मत लगाना तुम आगे न भी बढोगे शहर पीछे छुट जाएगा... *...............................* ग़ज़लें, कुछ नज्मे और कहीं कुछ त्रिवेनियाँ बिखरी पड़ी हैं उठा लेना उन्हें  सूरज ढलने से पहले सुना है रात बड़ी गहरी होती है इस शहर में. *..............................*

रूह

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कितना गहरा और उज्जवल  शब्द है यह  - रूह! ऐसा लगता है, जैसे ,  हवा से भी हल्का एक सफ़ेद जिन्न शरीर से मेरे निकल कर  इस कठोर धरती को चीरता हुआ किसी खोज में निकल पड़ा हो...                                                       एक अनंत खोज में...                                                                

पता नहीं

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"कभी कभी फैसले लेना कितना मुश्किल हो जाता है न... खासकर जब दो चीज़ों में से एक को चुनना हो - एक गलत और दूसरा सिर्फ एक एहसास ... जो न सही लगता हो न गलत... बताओ न अगर तुम्हे चुनना हो तो तुम किसे चुनोगी?"  "मैं?... पता नहीं." "अरे... कुछ भी पूछो तो तुम्हारा एक ही जवाब होता है - पता नहीं."  मुस्कान जोरों से हंस दी. "मैं तो ठहरी एक बेवकूफ तुम्ही बता दो न." "उम्... मैं ?... अगर एहसास विश्वास पर टिका हो तो एहसास को चुनुँगा."  "और अगर विश्वास ठहरता न हो तो?" विशाल ने एक पल मुस्कान कि आँखों में झाँका , मानो कुछ अनकहा पढ़ लेना चाहता हो... मुस्कान उसी मासूमियत से उसे देखती रही. विशाल कुछ कीमती न ढूंढ़ पाने के कारण छटपटा रहा था ... मुस्कान ने आँखों से इशारा में ही पुछा कि क्या हुआ... तब विशाल धीरे धीरे सोचते हुए बोला - "विश्वास को दृढ बनाना एक चुनौती है , एक परीक्षा है और शायद इसी परीक्षा में सफल होने पर हमें वो मिल जाए जो हमें चाहिए." विशाल अभी भी प्रश्न भरी नज़रों से मुस्कान को टटोल रहा था... मुस्कान कुछ उलझी उलझी थी अचानक से

घुटन

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रौशनी और ताज़ा हवा के लिए हल्का सा खोला था  ये दिल का दरवाज़ा पर सच पूछो तो अब... पहले से भी ज्यादा  दम घुटता है . 
खिड़की के कांच से आती  पीली रौशनी में कमरे के खालीपन को  थकी आँखों से नापती रहती हूँ... जीवन निरुद्देश्य सा लगने लगा है. इसीलिए नहीं की किस्मत साथ नहीं,  पर अब वे दिन नहीं रहे जब प्यार के दो शब्द --- दिन की खुराक मिला करती थी.

विश्वास

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हर रात वही प्रश्न -  आँखों में आंसू , और ये ज़िन्दगी थमी हुई सी लगती है -  मैंने तो सिर्फ विश्वास ही किया था न.

बहुत कोशिश कि

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बहुत कोशिश कि  खोला करूँ शाम को खिड़कियाँ क्यूंकि सूरज कभी डूबता नहीं एक परछाई बनी रहूँ क्यूंकि साए कभी कुछ कहते नहीं वो लकीरें मिटा दूं तुम्हारे चेहरे से जो तुम्हारी नहीं ,और मेरी नहीं ओर वो तारे भी जो कभी सपने बन गए थे हमारी आँखों के

हम

चाहते थे तुम  मुक्त हो  उड़ सकूँ  छू सकूँ  उचाइयां इस आसमां की . धीरे - धीरे मैंने सीख लिया है   उड़ना ,  मुक्त हो  भाव , कर्म ,  आकांक्षा और प्रशंसा  के अद्रश्य बन्धनों से, और डूबना भी ,  शुन्य की उस गहराई में ,  जहां 'मैं'  के भीतर  'हम' है.

बहरूपिया

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कभी कभी  एक अजीब सा ख्याल  मेरे सामने आ खड़ा होता है, कि मोहब्बत मुझे तुमसे है या उस बहरूपिये से जो गैरहाजरी में तुम्हारी तुमसे भी अच्छी भूमिका निभाता है...  

सुनो!

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रुखा सुखा जीवन हुआ मरणासन्न मन. सुनो! मुझे अपने शब्दों से एक बार फिर सींचो, प्रेम का पानी , डांट की खाद, और धुप का मार्गदर्शन दो , मुझे अपनी कल कल बहती हंसी से  एक बार फिर सींचो. सुनो! मुझे अपने शब्दों से एक बार फिर सींचो. 

सुगंध का संसार

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दो फूल खिले  भिन्न भिन्न क्यारियों में भिन्न रूप , भिन्न रंग , और भिन्न जीवन जीने की तैयारियों में. एक मंजिल  और एक सोच दोनों यूँ  बन गए दोस्त. पर था भिन्न पथ  और भिन्न जीवन की शाखा छा गयी ऐसे   जीवन में निराशा. फिर भी दोनों ने न खोया  अपना होश, संग सौ गुने विश्वास  के  लगाया दुगुना जोश एक दिन आया ऐसा, उनकी महक हुई एकाकार, रचाया फिर उन्होंने भिन्न एक सुगंध  का संसार. 

एक प्रेम

एक प्रेम जी रही हूँ मन ही  मन मैं  उनके संग एक प्रेम जीना नहीं चाहती जीवन भर बस पल और अनगिनत पल जी रही हूँ उसके संग एक प्रेम झूठ  है प्रेम नहीं बस कमी पूर्ति है जीना पड़ रहा है कुछ के संग... एक प्रेम  बचा लिया था स्वयं के लिए उसी के टुकड़े  बाँट रही हूँ सभी को जो बचा नहीं पाए एक टुकड़ा स्वयं  के लिए...

छोड़ कर गए हो तुम

छोड़ कर गए हो तुम ,  तुम ही , आओगे? या फिर सोचूंगी  की  बहा दिया दरिया में,  राख , जो कुछ हुआ - तन और  मन... कोशिश करुँगी  जी सकूँ पुनर्जन्म , क्यूंकि मरने के लिए अब बचा नहीं है मुझमे कुछ. 

रसीदी टिकिट

खुशवंत सिंह जी ने एक बार अमृता से कहा , तुम्हारा प्रेम प्रसंग बस इतना ही है , यह तो एक स्टाम्प पर भी लिखा जा सकता है... बस अमृता जी को बात जम गयी और अपनी आत्मकथा का नाम उन्होंने रसीदी टिकिट ही रख दिया. ये बात हमें हमारे प्रोफेसर ने एक दिन पढ़ते वक़्त किसी प्रसंग के सन्दर्भ में बतायी थी. मैं सोचती रही की इसे बिना कन्फर्म किये यहाँ कैसे लिखूं और आज इत्तेफाक ऐसा हुआ की दैनिक भास्कर में खुशवंत जी का रसीदी टिकिट के उपर एक छोटा सा लेख आया जिससे  मुझे रसीदी टिकिट के नाम का रहस्य बताने का मौका  मिल गया.  अमृता प्रीतम को आज से पहले कभी नहीं पढ़ा था. हाँ कई बार नाम जरुर सुना था , तब सोचती थी की पता नहीं कैसा लिखती होंगी.  एक इंग्लिश के प्रोफेसर ने कभी पढ़ाते पढ़ाते आदतन इसे (रसीदी टिकेट) अच्छी पुस्तक जान कर हमें सुझाया की हम भी पढ़ें. एक पुस्क्तक मेले में ये हाथ आई तो खरीद ही ली. आज जब इसका एक एक पृष्ठ  पलट रही हूँ तो लग रहा है की सच में यह एक आत्म-कथा है. या की अमृता के शब्दों में आत्मा की कथा. अमृता ने इसी विचार को मन में रख कर पुस्तक का काया-कल्प किया होगा. आत्मा पर जब गैर जरुरी नाम , घटनाएं

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बहुत दिनों बाद हिंदी की कोई बेहतरीन पुस्तक हाथ आई. पर इसे मैंने एक बार में नहीं पढ़ लिया ... धीरे-धीरे एक-एक अक्षर पि कर और घटनाएं जी कर लगभग  दो -तीन दिन में समाप्त की. पुस्तक थी - रसीदी टिकिट , अमृता प्रीतम की आत्मकथा. मैंने कई बार यह दुविधा व्यक्त की है की जब मैं अंग्रेजी पढ़ती हूँ तो मन और जिबान अंग्रेजी हो जाते हैं और जब हिंदी पढ़ती हूँ तो हिंदी. पर यह पुस्तक इस सबसे  से ऊपर थी. अमृता जी के ही भावों में - दर्द का कोई नाम या शक्ल नहीं होती. चाहे उसकी व्याख्या अंग्रेजी में हो या हिंदी में , वो सच्चा हो तो आत्मा के भीतर उतर जाता है... यूँ ही मन को बहला रही हूँ की , कभी कुछ बन पायी की आत्मकथा लिख सकूँ तो इस बात का ज़िक्र जरुर करुँगी की रसीदी टिकिट का मेरे मन के उपर क्या प्रभाव पड़ा. और अगर नहीं तो , खैर ! उसकी कल्पना में वक्त जाया नहीं करना चाहती. 

एक नया ब्लॉग

दिल से आवाज़ आई - आज कल आस-पास सभी उदास रहते हैं. आँखे अब हंसती नहीं ... बच्चे भी गुमसुम से रहने लगे हैं... क्या ज़माना गुज़र गया है हंसी का? या अब हम तितलियों की तरह उसका पीछा नहीं करते? क्यूँ किसी की  आँखों में आंसू देख कर हम आँखे ही बंद कर लेते हैं? कुछ दोस्तों ने एक पहल की है - खुशियाँ बांटने की. आईये किसी भी तरह इस सुंदर पहल का हिस्सा हम भी बने. अपने आस - पास लोगों के चेहरे पर मुस्कान बिखेरें और इसे ब्लॉग पर सबके साथ बाटे -  http://letsshareasmile.blogspot.com/    :)