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संघर्ष!

इस जीवन में इस संसार में जी रही हैं कितनी ज़िन्दगियाँ मिट रही हैं कितनी बस्तियाँ इस एक समय में समानांतर कितने इतिहास रहे बन संघर्ष! संघर्ष! संघर्ष ! हर आदमी की अपनी एक लड़ाई कितने विलग अलग-थलग हो गए हैं हम की नहीं नाता रहा एक के दर्द का दूसरे के मर्ज़  से मैं स्त्री हूँ वह दलित और तीसरा आदिवासी हम सिर्फ पाठ्यक्रम के अंश हैं विमर्श के असंख्य प्रश्न हैं और बस विस्मित आँखें पूछती एक ही प्रश्न, "क्या अब भी कुछ शेष है घटने को मानवता का क़त्ल बार बार होने को।  " (आदिवासी विमर्श पढ़ते हुए)

रैक्व और जबाला

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रिक्व ऋषि के पुत्र महान तपस्वी रैक्व अपने जीवन में किसी स्त्री से  नहीं मिले थे।  उन्हें ज्ञान ही नहीं था की स्त्री पदार्थ कैसा दीखता है  और उससे कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए।  आंधी तूफ़ान की कृपास्वरूप उनकी भेंट होती है राजा  जानश्रुति की एकमात्र सुंदरी कन्या जबाला से।  जबाला को देखकर वे उसे देवपुरुष समझते हैं क्यूंकि देवपुरुष का ही चेहरा इतना दिव्य, चिकना, बाल रेशम की तरह मुलायम और आँखे मृग की तरह हो सकती हैं। किन्तु जबाला उन्हें बताती हैंकि वे स्त्री हैं और रिक्व को उनसे लोक- सम्मत व्यवहार करना चाहिए। रैक्व जबाला से मोहित हो जाते हैं और जबाला के जाने के पश्चात हमेशा के लिए उनकी पीठ में सनसनाहट रह जाती है। यह कहानी है हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास "अनामदास का पोथा " की। जिसमें कि सिर्फ रैक्व ऋषि का प्रसंग ही उपनिषद में प्राप्त ही बाकी पूरी कथा लेखक की कल्पना का चमत्कार है। दरअसल , कहानी में  रैक्व की पीठ में सनसनाहट एक अजीब रहस्य है।  जो मुझे तब समझ आया जब मैं पति से दूर मायके आई और २ दिन के बाद पति की गर्दन में मोच आ गयी।  पति कहने लगे आ रही हो घर ? मैंने कहा ,

खामोशियाँ आवाज़ हैं , इन्हे सुनने तो आओ कभी

यहाँ मैं एस जे बन कर नहीं लिख रही , न ही ऐंजल या जेनी बन कर।  यहाँ मैं , मैं हूँ अपने असली नाम के पीछे भी छिपी असली मैं।  मैं जानती हूँ , यहाँ तुम मुझे नहीं पढोगे न ही वो।  मेरा उससे ज़िन्दगी भर का रिश्ता है।  पिछले जन्म में भी कुछ ऐसा ही करीबी रिश्ता रहा होगा।  पर अक्सर सोचती हूँ तुमसे पिछले जन्म का ऐसा क्या रिश्ता है की , इस जन्म है भी और नहीं भी।  होकर  भी नहीं है और नहीं होकर भी है। डायरी में पुरानी लिखी कुछ लघु कहानियाँ पढ़ रही थी।  जो दरअसल कहानियाँ न होकर हमारे बीच घटे भावनात्मक किस्से ही थे।  कहानी एक बहुत खूबसूरत कला है सच।  सच ! मैंने इस कला में अपनी बेहद दिली यादें संभाल राखी हैं, जिन्हे मेरे अलावा कोई अनकोड नहीं कर सकता।  मेरे और सिर्फ तुम्हारे सिवा। एक बात कहूँ।  मेरे लिखने के इंस्पिरेशन भी तुम हो और यह चाहत कि  शायद कभी तुम मुझे पढ़ो , और.… बस ऐसे ही खामोश रहो।

बस यादें !

वक़्त नहीं है खुद के लिए भी जाने , वो भी इसी हालत में होंगे सोचते होंगे मेरी ही तरह फिर कभी फुर्सत में मिलेंगे , फिर कभी फुर्सत में मिलेंगे। चंद यादें भी अब याद आने से नहीं आती हैं दिख जाए उनका नाम कहीं , तब  ज़िंदगी पुरानी  याद आती है।

सच

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प्यार से लिखे नामों को बारिशें मिटा देती हैं  सपनों के नन्हें पौधों को तूफ़ान उड़ा देते हैं  जो सच समझते हैं हम  जिसे लेकर ओढ़े रहते हैं   वो महज़ एक कागज़ होता है  पूरी किताब का - सार नहीं ! हर दिन का , हर क्षण का अपना एक सच होता है और ज़िंदगी भी  एक पल , एक दिन में ही जी जाती है।   

राष्ट्रीय संगोष्ठी - स्री विमर्श और मैत्रयी पुष्पा

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हाल ही में मैंने अकादमिक जगत में प्रवेश किया है, एक पी. एच. डी. स्कॉलर के रूप में । पिछले एक साल में मैंने दो सेमिनार   में भाग लिया - जिनके अनुभव अविस्मरणीय रहे।  कल ही मैं मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी - स्री विमर्श : साहित्य , मीडिया और समाज में भाग लेकर लौटी हूँ। एक साहित्य विद्यार्थी और साहित्य प्रेमी के लिए अत्यधिक आनंद, गर्व और सौभाग्य का विषय होता है एक अच्छे साहित्यकार को सुन पाना। हमारे लिए ये साहित्यकार किसी सेलिब्रिटी से कम नहीं होते।  कल की इस संगोष्ठी में मुख्य अतिथि के रूप में परम सम्मानीय मैत्रयी पुष्पा जी पधारी थीं।  साहित्य की इस महान हस्ती को पढ़ने का सुअवसर मुझे आज दिन तक प्राप्त नहीं हुआ किन्तु उन्हें सुनने के पश्चात मैं उनके बारे में लिखने से खुद को रोक नहीं पा रही।  साभार - अमरउजाला "30 नवंबर, 1944 को अलीगढ़ जिले के सिकुर्रा गांव में जन्मी मैत्रेयी के जीवन का आरंभिक भाग बुंदेलखण्ड में बीता। आरंभिक शिक्षा झांसी जिले के खिल्ली गांव में तथा एम.ए.(हिंदी साहित्य) बुंदेलखंड कालेज, झाँसी से किया। मैत्रेयी पुष्पा की प्रम

अन्या से अनन्या

प्रभा जी का सिर्फ एक उपन्यास पढ़ा था और लगा की इनकी आवाज़ मेरी आवाज़ से मिलती  है।  वो भी मारवाड़ी समाज , रीति -रिवाज़ों , और महिलाओं की स्थिति के बारे में लिखतीं हैं और मैं भी संस्कृति और महिलाओं के बारे में विचार करती हूँ। इन पर पी.एच डी करने में तो मज़ा आएगा। लेकिन प्रभा खेतान जी की आत्मकथा (अन्या से अनन्या ) पढ़कर  बेहद झटका लगा।  एक ऐसी छवि के साथ मेरा नाम हमेशा  लिए जुड़ जायेगा मैंने सपने में भी नहीं सोचा था।  ऐसा सुना था कि  प्रभा खेतान की आत्मकथा बहुत बोल्ड है।  लेकिन उनकी आत्मकथा पढ़ कर मुझे कहीं भी ये नहीं लगा कि 'कुछ ज्यादा' कहा  गया है बल्कि यही लगा कि 'ज्यादा को सीमित  ' करके कहा गया है। मैं जिन पर शोध करने जा रही हूँ वह एक ऐसी महिला हैं जिनका व्यक्तिगत जीवन उहापोह और लीक से हटकर रहा है।  मारवाड़ी समाज की यह महिला बंगाल में न केवल उच्च शिक्षा प्राप्त करती हैं बल्कि विवाह संस्था को ठुकरा कर अपने से 18 वर्ष बड़े विवाहित और पांच बच्चों के पिता से प्रेम कर बैठती हैं।   ज़िन्दगी उन्हें समर्पित कर  देती हैं।  चूँकि वह उस व्यक्ति पर आर्थिक रूप से निर्भर नहीं रहना चा

इल्ज़ाम

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इल्ज़ाम  "तू गन्दी है, गन्दी है, बहुत गन्दी है। " बड़ी चिल्ला रही थी। "मैं ? मैंने क्या किया ? " छोटी ने सहम कर पुछा। "तूने मुझे धोखा दिया है धोखा। "बड़ी ने गुस्से में तमतमा कर कहा। छोटी ने आश्चर्य में पुछा , "कैसा धोखा ?" "तूने मेरी बात अपनी सहेली को बता दी।  " "पर  .... इसमें धोखे वाली क्या बात है वो बात तो  … " "मेरी बात क्यों बताई ? तुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था।  "  … कुछ गलतियां बार बार हो जाती हैं और कुछ इल्ज़ाम ज़िन्दगी भर के लिए माथे पर छप जाते हैं।  छोटी के साथ ऐसा ही हुआ।  बड़ी ने एक न सुनी।  उसने बस इतना भर कहना चाहा था कि  - दुनिया  में कोई बात किसी से नहीं छिपती और  इतना ही था तो तुम मुझे भी नहीं बताती।  छिपाने का इतना आग्रह क्यों ? जो तुम हो उसे स्वीकार कर लो।  तुम स्वीकार क्यों नहीं करती ? लेकिन बड़ी जा चुकी थी अपनी दुनिया में जहाँ हर सवाल हर जवाब से दूर वह अपनी ही सोच में सुरक्षित रह सके। via: Google images