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Showing posts from 2009

औरत

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घर की कई मुर्दा मशीनों के बीच , एक मशीन जीवित सी है, दुनिया की नज़रों में, औरत एक मशीन सी है।

... आज की एक त्रिवेणी....

आज भी वह पुरानी बुरी आदत नहीं बदली, आज भी में उसके कारन बदनाम हूँ, न जाने कितने वादे भुलाये , न जाने कितने दिल तोड़े।

कुछ पंक्तियाँ ....

अब उसे समझाने की कोशिश नहीं करती , खुद को समझा लेती हूँ, आज कल में सभी आरोप सह लेती हूँ पहले भी सह लेती थी पर आंसुओ के साथ आज कल तो ज़हर भी मुस्कुरा के पी लेती हूँ अब उसे समझाने की कोशिश नहीं करती खुद को समझा लेती हूँ .....

......

वो कभी कभी मुझे कॉल करती थी, सुनाने के लिए अपनी खामोशी, ऐसा नहीं है की वह कुछ नहीं कहती थी, बल्कि बहुत कुछ कह जाती थी बिना शब्दों के भी , काल करती थी की रो सके अपना दिल हल्का कर सके, सोच सके की में उसके करीब ही हूँ, और वह सच में रोती थी, मुझे बिना बताये, फ़ोन को कहीं , अपने आँचल में छिपाए, फिर कहती थी बस इतना ही - "अपना ख्याल रखना" और झट से फ़ोन रख देती । में पूछ भी नहीं पाटा था - "तुम ठीक तो हो न"

रात गहरा रही है....

रात गहरा रही है ... दिल डूब रहा है फिर से, आज इस गहराई में । आओ फिर से मोती तलाशें मिलकर करें उस तारे से बातें आज न कहना जल्दी जाना होगा मिलन की कई रस्मे हैं बाकी। रात गहरा रही है... दिल डूब रहा है फिर से, आज इस गहराई में। वो चांदी की थाली सा दिखा आज चाँद भी रूठा मुझसे रुसवा हुआ तुम न रूठना बस गले लग जाना रात अँधेरी अभी और है बाकी। धुन संगीत और ताल की कमी है... मुझे मालुम है कविता थोड़ी कमज़ोर है...पर दिल की गहरायी से बनी है ... !!! ज़्यादा ख़ास तो नही पर मेरे दिल के बहुत पास है... :)

एक त्रिवेणी

मेरी आत्मा पर दाग कुछ बन रहे हैं कुछ समय पहले ही धोया था इसे अब सोचती हूँ उठा कर फ़ेंक ही दूँ।

मुखोटा

Man is least himself when he writes in his own person, Give him a mask and he will speak the truth. -Oscar wilde मुखोटे मैंने भी लगाये में किरदार बनी कई रोल निभाए ऐसा जमा मेकप भी की उतरता नही चेहरे से मेरे अब ।

कविता

कविता क्या सिर्फ़ शब्दों का जमावड़ा है मन के जज्बात कुछ नही? भारी भारी शब्दों का अखाड़ा है दिल की भावना कुछ नही? जो सोचते हैं की खड़ा करेंगे कविता का महल एक एक ईंट सोने की चुनकर आभा बढ़ाने के लिए ग़लत सोचते हैं। कविता तो एक कुटिया है मन दिल और मस्तिष्क के कोने कोने से तिनकों को चुनकर बनाया गया घोंसला है। कविता कोई मजदूरी नही वह तो सबुरी ह शांत सुंदर अभिव्यक्ति अशांत मन की!

बेनाम कविता !

आपके लिए, समय से परे हट कर देखो भूत , भविष्य वर्त्तमान से दूर एक अलग सा समय है वो समय महसूस होता है उन दो मस्तिष्क को उन दो दिलों को जो मिल जाते हैं बावजूद दूरियों के बावजूद खामोशियों के बावजूद पहरों के वो फिर अलग संसार बनाते हैं पीले झाडे पत्तों से सपनो का आशियाँ बनाते हैं सच को वे मापते नहीं उसकी परवाह नहीं करते सच भी अधुरा होता है वे ये जानते हैं झूट को ही सही कल्पना का नाम देकर बड़ी प्यारी सी नाजुकता से दिल बहलाते हैं पर आखिर वे अपने बनाये संसार में खुश रहते हैं किसी का दिल नहीं तोड़ते किसी की हंसी नहीं छीनते झूठे धर्म या प्रेम के नाम पर लड़ाई नहीं करते किसी को लुटते नहीं इस समय से दूर इस समय से परे कुछ खोजते हैं कुछ तलाशते हैं वो क्या है ये तो भला वो दो दिल ही जानते हैं. आपकी, ..........

ज़िन्दगी किसी के जाने से रूकती नही

५. 1 २. 2009 कोई आया था और कोई चला गया ज़िन्दगी किसी के जाने से रूकती नही वो नदी सदा बहती ही रहती है कभी किसी मोड़ पर थकती नही उसने एक दिन थामा था हाथ मेरा बोंला " तुम कुछ क्यूँ कहती नही" पर मैंने तोह कहा तुमने सुना नही... सुन कर भी शायद मुद कर देखा नही ... हर बार जब कोई गया दिल का एक टुकड़ा कहीं बिखर गया और तुम जिस दिन से गए... दिल को समझाया यही ... कोई आया था और कोई चला गया ज़िन्दगी किसी के जाने से रूकती नही... ज़िन्दगी किसी के जाने से रूकती नही।

बासी - पुरानी

रंगों में डूबी जिंदगानी है खुशियाँ आनी खुशियाँ जानी हैं सोचती हूँ ठहर ही जाऊ जब रुकी मेरी कहानी है जाने फिर कब अवकाश मिलेगा वो मुझे मेरे पास मिलेगा ....... शाम ढलती जाती है अकेली नही ढलती मेरी परछाइयों को भी ले जाती है और दे जाती है घुटन भरी तन्हाई जिसे में अपने साथ लिए घुमती हूँ ....

ठूंठ !

हिम्मत करके कॉलेज के सेकेण्ड इयर में मैंने हिन्दी की एक मैगजीन में अपनी एक कविता छपने के लिए दी। परन्तु शायद वो पेनल को पसंद नही आई और वो नही छपी । थोड़ा दुःख तोह हुआ और शुरुवाती कोंफिड़ेंस भी लूज़ हो गया पर फिर मुझे याद आया की निराली जी की भी तोह पहली कविता "जूही की कलि" महवीर द्विवेदी जी ने "सरस्वती " पत्रिका में नही छपी। आप यकीन नही मानेंगे आज तक मुझे वो किस्सा याद है और तस्सली बंधी हुई है की शायद जिस तरह निराली जी ने ऊँचाई प्राप्त की में भी कर सकू। :) खैर में अपनी वो कविता ब्लॉग पर लिखना चाहती हूँ की आप लोग मुझे सही आकलन करके बता सके । मेरी ये पसंदीदा रचना है। ठूंठ एक ठूंठ खड़ा है शायद बरसो से जिसकी जडें बहुत गहरी हैं शायद किसी मौसम में वो हरा होता है पर जब भी में देखती हूँ तोह वह ठूंठ ही दीखता है जाने क्यूँ पर में ही उसे देखना चाहती हूँ इसीलिए क्यूंकि शायद मेरे अंदर भी कहीं कोई ठूंठ है जिसकी जडें बहुत गहरी हैं जो किसी मौसम में तोह हरा होता है पर जब भी में अंदर झांकती हूँ जाने क्यूँ मुझे वो ठूंठ ही दीखता है।

कुछ शब्द गुलज़ार जी के लिए

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वैसे तो मेरा ज्यादा परिचय नही है गुलज़ार जी से पर एक बार गलती से मैंने उनकी ग़ज़ल व त्रिवेनियों की किताब पढ़ी और तभी से में उनकी कविता की कायल हो गई। फिर एक दिन पंकज ने उनके बारे में बताया साथ ही उनके ब्लॉग पर उन्होंने गुलज़ार जी की कुछ त्रिवेनियाँ भी लिखी जिन्हें पढ़कर बहत अच्छा लगा। http://pupadhyay.blogspot.com/2009/11/blog-post_09.हटमल कल अचानक से दैनिक भास्कर में मेरी नज़र गुलज़ार जी की तस्वीर व उन पर लिखे लेख पर पढ़ी जो की जाने मने साहित्यकार खुशवंत सिंह जी ने लिखा था। वैसे तो मुझमें इतना धैर्य नही की में एक कोई लेख पुरा पढ़ सकूँ पर खुशवंत सिंह जी मेरे प्रिया स्तंभकार व लेखक हैं और फिर लेख भी गुलज़ार जी पर था तोह पढ़े बिना रहा न गया। उनका लेख पढ़ कर गुलज़ार जी के बारे में बहुत कुछ बातें जानने को मिली जिसमें सबसे दिलचस्प थी उनका असली नाम - सम्पुरण सिंह कालरा । और भी दिलचस्प बात थी की उनके ज़माने में खुबसूरत लड़कियां उनकी दीवानी थी। खुशवंत सिंह जी ने गुलज़ार के विषय में एक बहुत अच्छी बात कही की उनकी ज़िन्दगी में आई कई औरतो की शिकायत रही की वे एक अलग थलग से प्राणी हैं हमेशा एकांत की तलाश कर

अतीत की देहलीज़ पर खड़ी ....

अतीत की देहलीज़ पर खड़ी वह कुछ डरी सी देख रही है अतीत के चलचित्रों में अपनी ही परछाई ... कोने में दुबक कर सोयी रोई आज वह खूब रोई देख कर माँ पिताजी का प्यार अपने छोटे भाई के प्रति दुत्कारा नही उसे न ही उपेक्षा की उसकी फिर भी जाने क्यूँ लगने लगा उसे की कोई प्यार नही करता उसे प्यार! अतीत में प्यार की कमी सी थी कमरे में अँधेरा था तकिया उसके आंसुओं से गिला था वह ख़ुद को चुप कराती सर पर ख़ुद ही हाथ फेर लोरियां सुनाती खुश करने के लिए ख़ुद को परियों की कहानियाँ सुनाती अतीत की देहलीज़ पर खड़े जब वह वर्त्तमान की और देखती है तो समझ पाती है क्यूँ वो लड़की अभी तक बचपन की कहानियों में khoyi है उन्ही कल्पना के जंगलों में भटक रही है वह तो कभी बड़ी हुई ही नही थी बल्कि समय ने उसे बाँध लिया है और उस देहलीज़ पर खड़ा कर दिया है जहाँ से वह न अतीत में पूर्णतः kho हो पाती है न वर्त्तमान में जी पाती है ... अतीत की देहलीज़ पर खड़ी...

triveni

एक रोज़ उसने मुझे प्यार से दी महीन चांदी के सितारों वाली वो चुनर और आज तलक में उसमें से चांदनी छानती हूँ

अधूरे चित्र

कुछ अधुरा अधुरा सा आज लग रहा है सब कुछ पिछला भुला कल याद आ रहा है... वो दुनिया जो मैंने बनाई थी एक पेंटिंग सी थी... पेंटिंग! आह! वो पेंटिंग्स , वो चित्र जो बड़े ही मन से बनाये थे मैंने कोई कलाकार नही थी में द्रोइंग में खास दिलचस्पी भी नही थी पर एक जूनून सा था उन कई रंगों में एक सुकून सा था जाने क्या सोच कर वो चित्र बनाये एक के बाद एक अधुरा छोड़ कई चित्र बनाये आज भी स्टोर रूम के किसी कोने में रखी हैं वो पेंटिंग्स... पेंटिंग! हाँ! पेंटिंग की तरह ही ज़िन्दगी हो गई है मेरी या शायद में उन अधूरे चित्रों सी हो गई हूँ स्टोर रूम में कैद पुरे होने की तलाश में कहीं खो सी गई हूँ...
सोचती हूँ कभी क्यूँ पौधा बनाया मुझे काश! में बेल होती तो अपने पेड़ से लिपटी होती शाखा होती , पेड़ से जुड़ी होती फूल होती , पेड़ पर खिली होती किसी भी तरह काश! में अपने पेड़ की होती पर अब में दूर हूँ हीन, क्षुद्र , सिर्फ़ एक चोटी पौध हूँ क्यूँ पौधा बनाया मुझे काश! में बेल होती । इसके आगे भी कुछ पंक्तियाँ लिखी थी मैंने पर जब मैंने अपनी मम्मी को सुनाई तब मम्मी ने अन्तिम पंक्तियाँ सुनकर कहा - ये नई generation की सोच है इसीलिए मैंने वो पंक्तियाँ इस कविता में से हटा दी। मम्मी ने उसे अपने ढंग से देखा पर में चाहती हूँ आप लोग भी उसे पढ़ें ताकि मुझे आपकी राय भी पता चले की कविता अन्तिम पंक्तियों के बिना अच्छी लग रही है या अन्तिम पंक्तियों के साथ। ये रही अन्तिम पंक्तियाँ - पर कहते हैं जो होता है अच्छे के लिए होता है में वो डूब तो नही जो पैरों की मार सहती है अपमान , दर्द और चोट सहती है में भले ही एक पौधा हूँ जो भी हूँ जैसा भी हूँ उस डूब से तो बेहतर हूँ।

तुम्हारी याद में -

पंकज की कलियों को खिलने के लिए उर्जा दी ओजस्वी सूर्य की किरणों ने निभाया एक दिन का साथ पर कहा रोक पाया सूर्य इस पंकज को मुरझाने से कल फिर उगा नया कमल खिला मुस्कुराया पुष्पित पल्लवित हुआ उसी सूर्य की ओजस्वी किरणों से प्रेम से प्रेरणा से
हँसते रहना खिलखिलाते रहना दो कदम पर ही घर है मेरा ऐसे ही साथ निभाते रहना कभी हो जाऊ नज़रों से ओझल मेरे गीत सदा गुनगुनाते रहना चाँद सिक्कों के लिए नही जीते ज़िन्दगी अपनी ख्वाब सोती आँखों को दिखाते रहना आंसुओ को पीने में मज़ा ही क्या है प्रेम की अमृत बूँद पिलाते रहना

कुछ पंक्तियाँ

दिल में दर्द है दिल में सवाल हैं दिल में एक दरवाजा है दिल में एक खिड़की है दिल से बहार झाँकने पर वो चाँद दीखता है दिल में अँधेरा छाया है इस दिल में दुबक कर सोया जा सकता है दिल में अकेले में रोया जा सकता है इस दिल में कई बात छिपी है दिल अक्सर खामोश रहता है दिल कभी चुपके से कुछ कहता है दिल की दीवार का रंग लाल है इस दिल का बहुत बुरा हाल है दिल मेरा बेचारा है दिल कमज़ोर और हारा है ...

दो पंक्तियाँ

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बूँद बूँद अपनी वो औरों पर लुटाता था वो कुआँ भी कभी प्यासा था -------------------- रात घिरने को आई आँखें हैं सजल अब तो मुझको गा लेने दो ये ग़ज़ल

जेसमीन

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जेसमीन लोग भले ही उसे ध्रुव तारा बुलाते हो जेसमीन उसे लेरी के नाम से बुलाती थी । लोगों को वह टिमटिमाता सुंदर तारा दीखता हो पर जेसमीन के लिए वो एक हेंडसम बॉय था जिससे वो बहुत प्यार करती थी और जो उससे बहुत प्यार करता था । कितनी सुंदर कल्पना है न ! पर ये कल्पना हर रात कुछ पलों के लिए सजीव हो जाती थी। प्यार भरी आंखों से जेसमीन उसकी तरफ़ देखती है और लेरी उसे अपनी तरफ़ खींच कर बाहों में लेकर बहुत प्यार करता है - और दो पल ऐसे ही गुज़र जाते हैं। पर उन दो पलों का ये एहसास - एक तनहा कल गुजरने के लिए काफ़ी होता है। अगले दिन उसके होठों पर मुस्कराहट होती है और दिल में इंतज़ार - फिर से उन्ही कुछ पलों को जी भर के जीने का।

एक और लघु कथा

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रिलेशनशिप "तो फिर क्या आज से हम साथ है?" मयंक ने चैटिंग करते हुए संजना को मेसेज भेजा । संजना को ये पढ़कर बहुत अजीब लगा। उसे समझ में नही आया आख़िर ये क्या था - प्रपोसल या इन्फोर्मशन या फिर क्वेस्चन ? उसने मयंक से पुछा "वाट इस दिस? वाट दू यु मीन ?" मयंक ने तपाक से जवाब में लिख दिया - "ओपन रिलेशनशिप है न इसलिए ओपेंली प्रपोस कर दिया।" संजना और मयंक दोनों ही शादी के बंधन तो क्या कमिटमेंट को भी नही स्वीकार करते थे। इसीलिए मयंक ने इस नए ट्रेंड को अपनाना ठीक समझा - ओपन रिलेशनशिप । जब तक जी चाहे साथ रहो , न चाहे छोड़ दो। कितना आसान हो गया है सबकुछ। संजना को मयंक की बात एक हद तक ठीक भी लगी थी । कम से कम इसमें बॉय फ्रेंड की झक झक तो नही थी और पर्सनल स्पेस भी थी। पर .... फिर वो हाँ करने में झिझक क्यूँ रही थी। ऐसी क्या चीज़ थी जो उसे ऐसा करने से रोक रही थी ... शायद कोई ऐसा सच था जो संजना को ये गलती {?} करने से रोक रहा था। संजना ने फिर अपने दिल को मनाना चाहा ... ख़ुद को उलहना दी ... यहाँ तक की ख़ुद को पिछड़ी मानसिकता का कहकर दुत्कारा भी पर फिर इस द्वंद्व के बीच सच की आवा

एक लघु कथा

दो सहेलियां तीन साल ही हुए थे दोनों की दोस्ती को पर एक अजीब सा बंधन था दोनों के बीच । वो दो सहेलियां थी - खास सहेलियां। शायरी और रोली तीन साल से हॉस्टल में एक ही कमरे में साथ रह रही थी। कल उनकी हॉस्टल की ज़िन्दगी का आखरी दिन था और आज की रात उनके साथ की आखरी रात। एक्साम्स ख़तम हो चुके थे इसीलिए पढ़ाई की टेंशन नही थी। दोनो पुरी रात बैठकर बातें करना चाहते थे । गर्मी के दिन थे इसीलिए हॉस्टल की छत पर बिस्टर लेकर चले गए। थोड़ी देर तक बैठ कर वो हॉस्टल के पुराने रंगीन दिन याद करने लगे। दोनों उस चाँद को निहार रहे थे जो अपनी सम्पूर्णता में मदमस्त सबसे बेखबर था। और दोनों को किसी अधूरेपन का एहसास सा हुआ। शब्दों की जरुरत नही थी । रोली ने शायरी का हाथ खींच कर उसे अपने पास लेटा दिया। चाँद की रौशनी खलल पैदा कररही थी । चादर मुह पैर धक् कर दोनों ने आँखे मीच ली । शायरी ने रोली का हाथ पकड़ कर उसे दबाया ... शायद उसे डर लग रहा था ... रोली ने उसे धीरे से गले लगा लिया। चाँद ढला नही पर सूरज ने उसे छिपा दिया था। रोली ने अपनी आँखे खोली तो ऊपर नीले आसमान पर उसे रात वाला तनह

कुछ खास तो नही बस यूँ ही है -

- तुम हँसना और हँसते रहना, कहकर एक मुस्कान दे गया वो अजनबी सा दोस्त आज दिल पैर दस्तक दे गया -आँखें मेरी आइना तो नही फिर भी उसने कुछ कहा नही दिल ख़ुद को समझाता रहा नही वो बेवफा नही , वो बेवफा नही -खुशी भी और गम भी ये साथ साथ क्यूँ चलते हैं आँखे कुछ कहती नही बस आंसू ही झरते हैं -रंग जाने क्यूँ उसे बहुत पसंद थे कई रंगों वाला कुरता वो पहना करती थी वो आँखे कितनी सुंदर थी दुनिया का हर रंग अपने में भर लेती थी कुछ खास नही बस बासी त्रिवेनियाँ - कहीं पढ़ा था मैंने किताबों से अच्छा कोई दोस्त नही पर आज कल दोस्ती मेरी कलम से हो गई है - दिल क्या है ? घर के स्टोर का एक कोना सा है.... तुम आना कभी! रौशनी की यहाँ कुछ कमी मुझको लगती है

फिर चार पंक्तियाँ

यूँ ही लिख दी थी एक दिन मैंने बैठे बैठे - कल शाम ही को चिट्ठी पढ़ी थी उसकी, तब एक तस्वीर मेरे जेहन में उतर आई आज रात फिर एक तार आया है और उसमें उसकी मौत की ख़बरआई ।

तीन और त्रिवेनियाँ

- छोड़ दिया है अंधेरे की फिक्र करना मैंने ऊँची ऊँची अट्टालिकाओं से अब आकाश जगमगाता है अमावस्या भी अब तोह ईद का चाँद हो गई है - सूखे पत्तों में दिन भर ढूंडा था तेरी यादो को समेत कर ले जा रही थी एक बार फिर उस हवा ने मेरा सब कुछ चीन लिया -अकेले रहते रहते सब एहसास मर चुके थे घर के कोने कोने से मिलकर लगा - में जिंदा हूँ बहुत दिनों बाद किसी ने आज दिल दुखाया है

चार पंक्तियाँ

चाँद को देखती हूँ तो सोचती हूँ क्या किस्मत उसने पायी है खूबसूरती इतनी है मगर दूर तलक फैली तन्हाई है

एक ग़ज़ल

मन में ये आज उलझन है क्यूँ आज ख़ुद से ये अनबन है क्यूँ पिंजरे में वह तड़पता रहा मन पंछी आख़िर कैद है क्यूँ द्वंद्व सा हर वक्त रहता हैं मन में मन आख़िर इतना कमजोर है क्यूँ

तीन त्रिवेनियाँ

तीन त्रिवेनियाँ -उसके बालों से अब सफेदी टपकने लगी थी आँख का चश्मा भी अब लुढ़कने लगा था किसी ने कहा था "जवानी की यादों को टटोलने के दिन आ गए" -काका के चेहरे की लकीरों में कितनी कहानियाँ छिपी हैं उसकी ज़िन्दगी के कटोरे में अनुभव की चवन्नियां रखी हैं मन करता है लिपट जाओं उन कन्धों से जिसने ज़िन्दगी के बोझ को यूँ बिना शिकायत उठाया -साड़ी में पहले अस्त व्यस्त सी रहा करती थी मिनी स्कर्ट में उसको अब शर्म नही लगती शर्माना वैसे भी अब आउट ऑफ़ फैशन हो गया है