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Showing posts from 2010

साम्या

"नहीं ये नहीं हो सकता " ,"लेकिन क्यों नहीं ? क्या अब हम दोस्त नहीं हैं ? " "दोस्त ... हाँ... पता नहीं...मुझे नहीं पता ... प्लीज़ मुझे अकेला छोड़ दो." इतना कह कर साम्या रेस्टोरेंट से चली गयी और उसके बाद मैंने उसे कभी नहीं देखा... अगले कई  सालों तक  नहीं. जब में उससे पहली बार मिला तब मुस्किल से वह बीस-इक्कीस साल की होगी...ओह...बहुत ही मासूम सी लगती थी.. छोटा कद , घुंघराले बाल .. ज्यादा लम्बे नहीं .. शायद कंधे तक... और गहुआ रंग ... भीड़ में कम बोलना .. और अकेले में चिल्लाना ... जोर जोर से हँसना ... वेटर के सामने मुस्कुराना और उसके पलटते ही मुझे आँख मारना... जब मैं उसे बच्ची समझता तो बड़ो जैसी हरकते कर जाती ... और जब मैं कुछ करने जाता ... मासूम बन एक टक ऐसे  देखती जैसे मैंने कोई गुनाह कर दिया... बिलकुल पगली लड़की थी... "पापा ये देखिये... आंटी...! साम्या आंटी को प्राइज़ मिला..." प्रशांत ने मुझे एक दम हिला ही दिया... मैंने प्रशांत को धीरे से मुस्कुरा कर कहा.. "हाँ ! लेकिन साम्या ने से इसे लेने से मना कर दिया..." अब प्रशांत के चोंकने की बारी

सपने

दूर पहाड़ी से उगता हुआ सूरज खिलती धूप और उसकी चमक से रौशन होता वो लकडियो वाला घर आस-पास हरियाली और नीचे बहती हुई वो सुरीली नदी... सपने कितने रंगीन होते हैं न , और शायद अंधे भी जिन्हें बीच में फैलती  खाई नहीं दिखती पीले झड़ते पत्ते और सूखती नदी नहीं दिखती...

याद

बहुत  दिनों  बाद वे मुझे  फिर याद   आई जिन्हें  मैंने  तीन  अप्रेल  कि शाम  को  पहली  बार  उसी रेस्टोरेंट में देखा  था  और  उसके  बाद  शायद  एक  या  दो  बार  और देखा हो   एक  सुंदर  कांच  के  महल  में  कैद  वो  एक  सुनहरी  और  एक  चमकीली  मछली . एक  बक्से  में  बंद  बिना  गुनाह  के  सजा  झेलती  उपर  से  नीचे  नीचे  से  उपर चक्कर काटती   बक्से  से  निकलने  को  बैचेन  मन ... मैं  बहुत  दूर  बैठी  उन्हें  ताकती   और  कुछ   सोच  न  पाने  कि  स्तिथि  में  थी  कोई  चीज़  थी  हमारे  बीच  एक सी    ज़िन्दगी  में  कैद  फिर   भी  ज़िन्दगी  से  दूर  ये  तड़प  थी   बन्धनों  की  .  उन मछलियों   की  याद   अभी  भी   ज़ेहन  में  किसी   जिंदा  तस्वीर  कि  तरह "कैद" है.

सिल लिए हैं मैंने होंठ अपने अब

मेरे शब्दों को तुम पसंद नहीं, और तुम्हे मेरे शब्द. सिल लिए हैं मैंने  होंठ अपने अब.  चुप रहते रहते सारे,  कहीं खो गए हैं शब्द, सिल लिए हैं मैंने होंठ अपने अब. दीवारे ताकती हैं मुझे , तकिये पर टपकते हैं शब्द, सिल लिए हैं मैंने होंठ अपने अब.
क्या तुम्हे नहीं   लगता बढ़ता ही जा रहा है ये प्रेम दरिया या कि जैसे बसंत अब मुस्कुरा रही हो शीत में भी ? ***** क्यों मैं देखने लग गयी हूँ बताओ तुम्हारी ही सूरत में मेरे अजन्मे बेटे कि मासूमियत?  *****

3.) अनुवाद

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3.) अनुवाद मृत ज़मीन की रुखाई के मध्य, एक फूल की ख़ामोशी ; इतनी मासूम और गंभीर, कि अब वो ख़ामोशी उसकी अमर कहानी बन गयी है .

२.) अनुवाद

  २.)  अनुवाद   तुम्हारे कदमो के निशाँ, मेरे दोस्त ! मिटाए जा चुके हैं, "किसके द्वारा?" तुम्हे नहीं पता? ओह बेचारा इंसान ! जिसे ये नहीं पता उसकी गलती क्या है, रुको ! भागो मत! भूल धुंध कि तरह हर कहीं फैली है , इसीलिए आखिरी फैसले से पहले, इस धुंध को साफ़ होने दो.

अनुवाद

स्वयं कि अंग्रेजी कविताओं का अनुवाद करने का मन हुआ... अनुवाद में वैसे भी रूचि है और हाल ही कुछ दिनों से कई छोटी अंग्रेजी कविताएं लिखी तो सोचा पहले इन्ही का अनुवाद करके देखा जाए... तो कुछ अनुवाद श्रंखला से --- १.) मेरे मित्र ! तुम कहते कुछ हो और  करते कुछ और, और तुम पढ़ाते हो कबीर , यह एक शर्मनाक बात है, ओह! शिकायत करना बेकार है, यह संसार है. अद्भुत और अजीब  ! नकली चेहरों  से घिरा, और अविश्वास से भरा.

श्रेया...

" मिसेज मेहता , आइरिस ने अपनी सफलता का श्रेय आपकी परवरिश को दिया है , इस बारे में आप कुछ कहना चाहेंगी ? " मुक्त हंसी के साथ श्रेया मेहता पत्रकार को जवाब में कहने लगी  , " अच्छा! तो अब वो इतनी समझदार भी हो गयी है ..." पत्रकार जैसे कुछ समझ न पायी हो , ऐसा एक्सप्रेशन देती है , तो श्रेया फिर कहने लगी  ...पर  अबकी बार थोड़ी गंभीरता भरे स्वर में .. " हाँ.. कभी कभी मुझे भी लगता है...  शादी से पहले में इतनी रिबेलिअस थी ...पर कुछ न कर सकी ... यहाँ तक कि शादी भी खुद कि मर्ज़ी से नहीं कर सकी.. और फिर एक लम्बी लिस्ट है कि मैं क्या क्या नहीं कर सकी और किस वजह से...तभी से मैंने यह तय किया कि मेरे साथ जो होना था वो हो गया लेकिन अपने बच्चो को मैं ऐसी परवरिश दूंगी कि .... कि कल को उन्हें ये न लगे कि वो अपनी नहीं किसी और कि ज़िन्दगी ढो रहे हैं... मैं चाहती थी कि मेरे बच्चे ज़िन्दगी जिए... ओर वो भी खुद कि बनायी हुई..." पत्रकार अभी भी संतुष्ट नहीं दिखी , फिर जोर देकर बोली , " पर ऐसा क्या ख़ास सिखाया आपने अपने बच्चो को? "  फिर से मुक्त  हंसी कि लहर हवा में समां गयी

उफ़!!... तुम भी न.

तुम जानते हो? तुम्हे कितना मिस किया ? हाँ... आई नो ! तुम बोलोगे - मुझसे ज्यादा नहीं . शायद ये सच भी हो... पर क्या फर्क पड़ता है ... मिस करने के  अलावा भी बहुत कुछ किया ... यु   नो ... बहुत कुछ फील कर रही हु... ....................................................... "क्या?" अभी बताया तो... "उफ़... तुम भी न..." और  मैं खिलखिलाकर हंस दी ... *--------------*----------------* उन्होंने पुछा  क्या किया इतने दिन?  मैंने कहा - आप  मेरी ज़िन्दगी में नहीं रहोगे तब ये ज़िन्दगी कैसे होगी , यही देखा... अच्छा तो कैसी होगी...? पता नहीं... पर जब आप रहते हो वैसे तो नहीं होगी... "उफ़... !!! तुम भी न..." और मैं खिलखिलाकर हंस दी ... *--------------*---------------* तुम सच में चाहती हो मैं किसी ओर से शादी कर लू? ...... हाँ ..... सच? हाँ... और तुम क्या करोगी उसके बाद? मैं भी किसी से शादी कर लुंगी. एक बात कहू? कभी कभी मुझे लगता है तुम मुझे उतना प्यार नहीं करती जितना मैं तुम्हे करता हु. हम्म... क्या ? हम्म....?? कुछ नहीं.... उफ़... तुम भी  न... !

2 mahine...

क्या कहू कुछ समझ नहीं आ रहा ... लगभग दो महीने से में लापता हूँ... इतनी गहरी चुप्पी ऐसे ही तो नहीं टूटती ... खैर! दो महीने घर पर आराम से रही ओर सबसे ख़ास बात की मैंने इतना कुछ नया पढ़ा , देखा , जाना की उसे कैसे बयान करू समझ ही नहीं आ रहा... कुछ नोवेल्स और अच्छी चीज़े पढ़ी (कभी मौका मिला तो लिस्ट के साथ अपने विचार भी व्यक्त करुँगी). खाना बनाने में अब परफेक्ट हो गयी हूँ (ऐसा मम्मी कहती है :) ) और ... कुछ लघु कथाये भी लिखी . कुल मिलकर दो महीने घर पर रहना सार्थक हुआ. अब वही दौड़ भाग और पढाई शुरू... ----  पहला दिन जयपुर में ---- कुछ अजीब सा लगा .. जैसे एक सपना हो... पहली रात ----- थोडा  अकेलापन लगा ... बेड भी थोडा सख्त था ... फिर भी नींद आ  गयी शायद बहुत थक गयी थी. आश्चर्य है , घर पर सबके रहते लगता था थोड़ी privacy चाहिए ... थोडा टाइम चाहिए ... खुद के लिए... और अब...पता नहीं इतनी याद घर की कभी नहीं आई...

एक सूरजमुखी आत्मा : विन्सेंट वान गोघ

http://prosepot.blogspot.com/2010/06/blog-post.html अभी अभी एक किताब ख़तम की है , "लस्ट फॉर लाइफ" , विन्सेंट वान गोघ , एक डच चित्रकार के जीवन पर आधारित इरविंग स्टोन द्वारा लिखित. दिल में कई भाव उमड़े उन्हें एक आर्टिकल  का स्वरुप देकर उतार डाला.... उपर दिए ब्लॉग लींक पर क्लीक करके आप वह आर्टिकल पढ़ सकते हैं.

बेजुबान कि जुबानी

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मेरी नयी कोमिक्स - पानी बचाने , पानी का सही उपयोग करने एवं पक्षियों को पानी उपलब्ध कराने पर बनायी है.  सच कहू मुझे नहीं लगता मैंने पहली बार से कोई तरक्की की है पर में खुश हूँ कि आखिर मैंने कोमिक्स बनाने कि कला सीख  कर उसे कचरे में नहीं डाल दिया बल्कि उसका उपयोग किया और उसे जारी रखा... और  कोई भी कला धीरे धीरे ही मंज कर निखरती है... तो मैं आशाओं से भरपूर हूँ... और एक और  खुशखबर यह है कि जल्द ही में अपने शहर में कोमिक्स कि वर्कशॉप आयोजित करने जा रही हूँ.. बड़ो के आशीर्वाद ओर हमउम्र दोस्तों कि शुभकामनाये  एवं साथ चाहिए ... - ओजसी  

अँधेरा और रौशनी

 तुम इंग्लिश लिटरेचर पढ़ रही हो न ---हाँ ! --- एक बात बताओ --- पूछो ! --- शेक्सपियर इतना महान कैसे बना? --- उसका जीवन मुश्किलों से भरा था पर उसने ज़िन्दगी के अँधेरे से लड़ कर रौशनी को पा लिया था यही कारण है कि उसके नाटक हमें घोर अँधेरे कि गुफा का दर्शन कराते हुए रौशनी का रास्ता दिखा देते हैं--- हम्म! ... तो क्या हार्डी को एक असफल और निचे दर्जे का साहित्यकार मानना चाहिए?--- नहीं! मुझे नहीं लगता कि वह असफल है या किसी भी दृष्टि से शेक्सपियर से निचे दर्जे का साहित्यकार है--- और वह कैसे? ---- उसके उपन्यास के पात्र अँधेरे के तल को छू जाते हैं हालांकि वे रौशनी तक नहीं पहुचते पर वे पूरी कोशिश करते हैं उस रौशनी को पाने कि... इसी बुरी हार में उनकी जीत है ... और  इसी कोशिश में वे अपने भीतर कि किसी रौशनी से मिल पाते हैं --- हम्म! --- आइ होप तुम मुझे समझ रहे हो--- हाँ! में पूरी कोशिश कर रहा हूँ--- (जोर से हँसते हुए) हम्म... मेरी नज़र में हमेशा कोशिश करते रहना ही सफल और सच्चा होना है --- (मुस्कुराते हुए) हम्म! में समझ गया.

योगी और भोगी

सहर और साशा कि आत्माएँ शायद एक दूसरे कि प्रतिबिम्ब थी . दोनों ही स्वच्छंद रूप से इस प्रथ्वी  पर भ्रमण करना चाहते थे. दोनों ने एक ही बिंदु से अपनी यात्रा कि शुरुआत कि थी. बिना शादी किये वे अकेले अलग अलग घूमते रहे. सहर के कई सम्बन्ध बने ... पर वह एक जगह कभी नहीं टिका ... एक जगह से दूसरी जगह घूमता रहा , सच कि तलाश में... धीरे धीरे लोग उसे योगी बुलाने लगे... उसका सम्मान करते .. उसे आसानी से अपना लेते... योगी का संसार भर में नाम हो गया... साशा भी उसी सच कि तलाश में भटकती रही... उसके भी कई संभंध बने ... वह भी एक जगह नहीं टिक पायी .. भटकती रही ... धीरे धीरे लोगो को उस पर संदेह होने लगा... उसका सम्मान घटता गया .. लोग उससे कटते गए.... लोग अब उसे भोगी बुलाने लगे... अब भी सहर ओर साशा में ज्यादा फर्क नहीं था ... वे एक ही आत्मा के दो प्रतिबिम्ब थे... एक योगी दूसरा भोगी....!!!

ग्रासरूट कोमिक्स

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यह ग्रासरूट कोमिक्स है. हाल ही में जयपुर में जवाहर कला केंद्र में प्रवाह एनजीओ और कई संस्थाओं के तत्वाधान में आयोजित एक कार्यशाला में मैंने ग्रासरूट कोमिक्स बनाना सिखा था. यह कोमिक्स उसी कार्यशाला में बनायी थी. मेरी पहली कोमिक्स है यह आशा करती हूँ आगे इससे भी कुछ अच्छा कर पाउंगी. :) 

मन पतंगा

मन पतंगा जल रहा में हो रही धुआ धुआ ... इस जलने में भी क्या नशा सा  है ... मन पतंगा जब  से  हुआ जी रहा तेरी रौशनी के दम पे इस तरह जीने में भी एक मज़ा सा  है... मेरे पागल मन पर लोग  हँसे इसकी फितरत पे ताने कसे में हंसी खूब  हंसी ओर कहती रही मन तो मेरा पतंगा सा है... मन तो मेरा.... मन पतंगा जल रहा दूर जब से तुझसे हुआ... तेरे होने में तो जलन , न होने में भी पीड़ा है ... कमबख्त ये पतंगा भी तो एक कीड़ा है... जलने देना इस पतंगे को बुझना न लौ तू.. तेरी रौशनी के दम से जी रहा माना मर रहा है हर घडी .. पर इस मरने में भी मज़ा सा है... इस तरह  जीना स्वर्ग सा  है..

उज्जवल ...

वो लोग सही कहते थे केवल प्यार से पेट नहीं भरता... ओफ्फो ! ये कमबख्त ऑटो वाले रुकते तक नहीं ... गर्मी तो ऐसे बढ़ रही है लगता है सच में दुनिया ख़तम होने वाली है- हो जाये मेरी बाला से तो अच्छा है ये रोज़ रोज़ की आफत छूटेगी. .... "भैया ये लोकी क्या भाव है?" "दीदी क्या आप भी रोज़ रोज़ पूछते हो ..." "अच्छा चल आधा किलो दे दे ओर पाव भर टमाटर  ओर प्याज   भी बाँध देना  " .... आज  तो फिर भी शान्ति है कल से ही मनु तनु की छुटियाँ शुरू होंगी जिद पर लग जायेंगे दोनों - कश्मीर ले चलो , हमें कश्मीर जाना है.. अरे मज़ाक है क्या कश्मीर जाना.. कितना खर्चा होता है उन्हें क्या पता.. ओह ! कश्मीर...सच कितना सुंदर लगता होगा..ओर कबसे मेरा ख्वाब था कश्मीर की खूबसूरती को देखने का.. मैंने तो हनीमून के लिए भी वही जगह सोची थी पर उज्जवल ने हनीमून ही केंसल करा के अपाहिज बच्चो  के स्कूल में दान कर दिए रुपये. .... "ऑटो --- भैया कोयले वाली गली ले चलोगे?... क्या? ३० में ? अभी तो में २५ में आई हूँ  ... अच्छा चलो ...  " जाने किस महान ने इसे कोयले वाली गली का नाम दिया था... शायाद पहले को

पंखो का शरीर

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मेरे कमरे के सामने वाले घर के पीछे यानी मेरे कमरे के सामने एक कबूतर के जोड़े ने गीज़र के उपर डेरा बसाया है ---- कई दिनों बाद आज मैंने उन्हें गौर से देखा - कबूतरी परेशान है कबूतर लाचार है कबूतरी पेट से है कबूतर उसके पास है कबूतरी को एक पल चैन नहीं उसके पंखो में कुछ काट रहा है कबूतर बिलकुल शांत है कबूतरी अपनी चौंच से कोशिश कर रही है कबूतर चुप चाप बैठा उसे ताक रहा है क्यूंकि कबूतरी परेशान है , मुझे लगता है कबूतर थोडा गंभीर है, में खड़ी खड़ी लाचारी से सब कुछ देख रही हूँ उससे भी बढ़कर महसूस कर रही हूँ. रह रह कर "अमेरिकेन ब्यूटी " फिल्म का हीरो याद आ रहा है, संसार में असंख्य खूबसूरती बिखरी हुई है, ओर फिर खूबसूरती सिर्फ ख़ुशी से ही तो पैदा नहीं होती न. कबूतरी उसके पंखो के शरीर में अपनी चोंच चुभा चुभा कर खुद को आराम दे रही है... मुझे उसका पंखो का शरीर लुभा रहा है , ओर एक अरसे तक में उसे यूँही एक तक देखती हूँ....

निज भाषा का प्रेम

मन में कई विचार दौड़ रहे हैं ... पढ़ रही हूँ इंग्लिश पर विचार हिंदी भाषा को लेकर हैं.  क्या हिंदी केवल भाषा है? यही सवाल में इंग्लिश के लिए भी पूछ सकती थी , पर जवाब में तभी दे पाती जब इंग्लिश बोलने वाले देश में रहती. भाषा हमारी संस्कृति से सीधा सम्बन्ध रखती है. किसी भी देश की आत्मा को समझना हो तो उस देश के साहित्य को पढना चाहिए. हिंदी हमारी केवल भाषा नहीं है. कई देशो में हो सकता है की उस देश की भाषा , भाषा से अधिक कोई महत्व न रखती हो , पर हमारे लिए निश्चित रूप से हिंदी का अनूठा स्थान है. मुझे कभी कभी ऐसा लगता है की , ये हमारी गलत धारणा है की हम चीजों को चुनते हैं , सही मायने में चीज़े हमें चुनती है. कहा जाता है , भगवान् जब तक न बुलाये , हम उस मंदिर जा ही नहीं पाते. ठीक उसी तरह , हम चीजों को जितना प्यार देंगे वो हमारी बनकर रहेंगे. हिंदी को हमने बहुत प्यार दिया है , इसे राष्ट्र भाषा बनाने में क्या कसार नहीं छोड़ी , ओर आज तक भी अंग्रेजी के प्रकोप से इसे बचाने के लिए हम इसे अपने गले से लगाए हुए हैं. ये हमारा प्यार है हमारी भाषा के प्रति. ओर देखिये ये हिंदी हमारा प्यार हमें कैसे लौटाती ह

भाषा का द्वंद्व

 परीक्षा शुरू होने में मात्र अट्ठारह दिन शेष हैं. चिंता स्वाभाविक है. पर बैचैनी ओर भी बहुत चीजों की वजह से है . में अंग्रेजी साहित्य की विद्यार्थी हूँ. यह मेरा हमेशा से प्रिय विषय है. पर साथ ही हिंदी साहित्य भी मुझे बेहद पसंद है शायद इसका श्रेय मेरी मम्मी को जाता है जो की हिंदी साहित्य की लेक्चरार है या फिर मेरी रूचि को जिसकी वजह से मैंने दोनों साहित्य  ब. ए तक पढ़े.  परन्तु अब लगता है बहुत बड़ी गलती की दोनों साथ पढ़कर . एक द्वंद्व सा छा गया है जीवन में. जब कॉलेज में थी तब इंग्लिश की क्लास के बाद इंग्लिश ही बोलती थी , इंग्लिश में ही सोचती थी , ब्रिटेन की दुनिया में खोयी रहती थी , ओर जब हिंदी की क्लास से निकलती , मन में पन्त की , तुलसी दास की पंक्तियाँ घुमती थी .   दोनों साहित्य पढने से एक अच्छी बात यह हुई की मुझे यह समझ में आया की चाहे वह भारत हो या विदेश ,  मानव मूल्य , उनकी भावनाए सब जगह लगभग एक सी हैं. दोनों साहित्य को  साथ में पढने से एक दुसरे से अच्छे से सम्बंधित कर पायी. एक ओर बात जो मैंने गौर की वह ये की दोनों साहित्य की धारयिएन साथ ही बही या एक का प्रभाव दुसरे पर पढ़ा. जै

ढलते सूरज की यादे ओर नए सूरज का इंतज़ार

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ढलता सूरज                                                                          बुझते  दीपक की लौ के समान चमका दो पल के लिए आँखों को चकाचौंध कर  दिल में उमंग जगाकर जोश को सिंहासन पर बैठा कर सपनो में सिरहन पैदा कर बुझ गया नहीं! वो सूरज  था ढल गया. ये रात क्यूँ आती है? पर उससे पहले ये शाम भी तो कुछ गाती  है;  कुछ उदासी के गीत, जो बुझे दीपक की लौ पर उठते धुए के समान  मन पर काला साया बिखेर देती है... ये शाम वक़्त से पहले बूढ़े हुए किसी बच्चे सी गुमसुम रहती है रात तो फिर भी  बहुत तो नहीं पर कुछ आराम सा  देती है... सूरज ढलने से लेकर  में उस वक़्त का इंतज़ार करती हूँ जो इस शरीर के सभी दरवाज़े हौले से बंद कर मेरे सपनो में खो जाएगा  जब तक नया सूरज फिर से आएगा जब तक कोई उस ढलते सूरज की यादो को मिटाएगा.

mehndi wali baat ...

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कुछ दिन पहले  मेहँदी लगायी  बड़े डर के साथ. सुना था -  "जिसे मेहँदी नहीं रचती  उसे प्यार नहीं मिलता" में जानती थी  मुझे  मेहँदी नहीं रचती है ... रोज़ देखती हूँ  धीरे धीरे मेहँदी उतर रही है... हाथ घिस रहे हैं... कुछ  धब्बे से बनते जा रहे हैं उँगलियों पर  कुछ दिनों में मेहँदी  पूरी मिट जाएगी कोई निशाँ नहीं रह जायेगा न ही कोई डर फिर जी भर के दिल को बेहलाउंगी देखूंगी अपने  हाथ की ओर खुद को समझाउंगी  की तुम हो न मेरे लिए मुझे प्यार करने के लिए.... मेरा साथ देने के लिए... हो न तुम ??? तुम हो न!  ये कहने के लिए की ये मेहँदी वाली बात एक झूठ  है...

तनहा सफ़र में रात के तारे

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जब भी रात के सफ़र में होती हूँ कुछ पंक्तियाँ बन ही जाती हैं... अभी जब में अपने घर से जयपुर आई तो  तारो भरी रात को देख कर ये पंक्तियाँ दिल में उतर गयी जिन्हें मैंने अपने मोबाइल में सेव कर लिया था --- काली चुनरी में जड़े हुए हीरे से लगे  मुझको ये रात के तारे  रात भर  बैठी  गिनती  रही  क्यूंकि जानती हूँ कटता नहीं ये तनहा सफ़र यूँही एक तारे से दुसरे तारे के बीच सपनो के जाल बुनती रही  क्यूंकि जानती हूँ सपनो के बूते भी जी जा सकती है एक लम्बी उम्र .

ढाई किलो की रजाई

हालांकि मुझे अक्सर चीज़ों से प्यार हो जाता है - अपनी चीज़ों से , और फिर उनसे एक रिश्ता सा जुड़ जाता है पर वो ढाई किलो की रजाई तो में दीदी के लिए लेकर आई थी , उससे भला मेरा क्या रिश्ता? पर कोई रिश्ता तो था और इसीलिए उसे में कभी भुला नहीं पाउंगी. वो जनवरी के पंद्रह दिन - हाथ का असहनीय दर्द - और ढाई किलो की रजाई. अब शायद आप समझ गए की मेरे और रजाई के बीच क्या रिश्ता होगा... नहीं समझे? :)  बहुत ही दर्द दिया है  इस रजाई ने मुझे ... पर में क्या कम बेवकूफ थी? दूकान से घर तक वो ढाई किलो की रजाई कंधे पर लाद कर लायी हालांकि इस किस्से से वाकिफ सभी लोगों ने मुझे "कंजूस" समझा - पर में अपने रोमांटिक वर्ल्ड में खोयी हुई थी ... एहसास ही नहीं हुआ इस बात का की ढाई किलो की रजाई उठाने का क्या हश्र हो सकता है . में कभी उन मजदूरों के बारे में सोचती जो दिन भर अपने शरीर पर बोझा  ढोते हैं ... तो कभी उन औरतो के बारे में  जो सुबह चार बजे पनघट पर पानी भरने जाती हैं और बड़े बड़े घड़े सर पर उठा कर लाती है . पर एक दिन बाद जब ढाई किलो की रजाई उठाने की वजह से मेरे हाथ में बहुत ज़ोरों का दर्द उठा - तो मे
रह रह कर आम की सौंधी महक मुझे सुहाती है जून के महीने में लबालब आम से भरे ओठों  की याद दिलाती है  वो पापा से जिद्द कर कर आम की पेटियां मंगाना वो माँ से लड़ कर भी आम पर आम खूब खाना रोना खूब बिलखना आम का मौसम गुज़र जाने पर दिन -ब-दिन महीने - दर- महीने यूँही बिता देना इसके फिर आने तक आज जब एक पल के लिए समय ठहरा सा लग रहा है आम की सौंधी महक फिर भी मुझे अकेला नहीं छोडती  बच्ची-सी है ये कहीं न कहीं से आ जाती है मेरा प्यार पाने या शायद थोड़ी बड़ी हो गयी है, जो आती है मेरा साथ निभाने. 
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"आज़ाद पिंजरे का परिंदा" क्या वो परिंदा बेजुबा था ? ... बेजुबा तो नहीं था शायद पर उसकी भाषा कुछ भले  इंसानों के परे थी  ... हर किसी का प्यारा वो परिंदा फिर भी पिंजरे में कैद था ... हरे , नीले गहरे रंग का वो सुनहरा परिंदा आँखों का चोर और चाल का सिपाही था ... (सिपाही , क्यूंकि सिर्फ पिंजरे में ही चलने को आज़ाद था ) उसका पहला मालिक भी खूब चालाक  ... लिख दिया पिंजरे पर चाक से - "आज़ाद पिंजरा" , मानो जैसे परिंदा पढ़ लेगा तुम्हारी भाषा और खुश रह लेगा इस "आज़ाद पिंजरे " में ... पर भाईसाहब! जब आप नहीं समझते उसकी भाषा तो ये बिचारा क्या समझेगा आपकी भाषा..  खैर! "आज़ाद पिंजरे  का परिंदा " इन भाईसाहब के हाथो से बिका जो इसे बेजुबान समझते थे ... और तब से अब तक ये कई बार बिक चूका है ... उनके हाथो जो इसे बेजुबान समझते थे -   ये "आज़ाद पिंजरे का परिंदा" इक सफ़र पर है - तलाश है इसे एक इंसान की जो समझ सके बस इतना की - ये बेजुबान नहीं ! 
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शब्द साथ छोड़ देते हैं...भावनाए रिसती हैं... टप टप दो आँखों  से बहती है ... एक रात ये है ... एक वो रात थी ... अँधेरा दोनों में गहरा बराबर सा था ... पर उस रात तुम्हारी  आवाज़ मेरे साथ थी ... आज की रात बस उसकी गूंज शेष है ... उस रात को बारह बजे चाँद खिला था ... तुम्हारी आवाज़ सुनकर उसे पलकों से छाना था मैंने  ... मेरी पूजा फिर भी पूरी कहाँ हुई थी? ... तुमने दिल खोला अपना ... मुझे राजदार बनाया... कुछ सपने बांटे ... थोडा ठिठककर .... रुक कर ... अपनी कमजोरियां बताई ... मैंने सुना तुम्हे ... तुम्हारे विचारों की अर्धांगिनी बनी ....पूजा की आखरी रस्म अभी भी बाकी थी ... आवाज़ ने तुम्हारी चादर बन ढक लिया मुझे ... रात का अँधेरा और भी गहरा गया... प्यार की रस्म पूरी हुई... तुम खुश हुए .. थोडा संतुष्ट हुए... मेरी पूजा पूरी हुई... अब तुम्हारी पलके भारी होने लगी थी ... तुम सो गए थे .. भोर का सूर्य-चन्द्र मिलन मेरी झोली में खुशियाँ भर गया था... क्या पता था इस झोली भर खुशियों से ही हर रात गुजारनी पड़ेगी....
अक्सर में जानबूझ कर ब्यौरा लगाने छत पर जाती हूँ और देखती हूँ - दो पक्षी उत्तर को उड़ते  एक पक्षी दक्षिण को... ये नर्म बहती सी धुप, और ये दोपहर की स्तभ्द्ता जिसमें चीखती सी कभी कभी द्रिल्लिंग की आवाज़  या अचानक सुनाई देती पटरी पर दौडती ट्रेन की साज़, मुझे एक सफ़र पर ले जाती है ... और उस गाँव छोड़ देती  है , जिसमें ऐसे ही किसी दोपहर की स्तभ्द्ता में  में खुद  को तालाब किनारे बैठा देखती हूँ - बिखरे सूखे बाल, लाल कांच की चूड़ियाँ , कंधे से सिरकता हरा दुपट्टा , पैरों में मैली चांदी की पाजेब, आँखों की चमक और ओठों पर थिरकती हंसी, दोपहर की स्तभ्द्ता के बावजूद  कानो में गूंजता आज़ादी का गीत जीवन में मिठास घोलने वाला  दिल के पंछी से मधुर संवाद... पर अब ये - आँखों की चमक, मुक्त हंसी, आज़ादी का गीत, और मधुर संवाद, मिलते हैं  सिर्फ इस सफ़र में उन चंद पलों में, जो में चुरा लेती हूँ, जब छत पर जानबूझ कर ब्यौरा लगाने आती हूँ . 

Rishton ki uljhan - Rishton ki bikhran

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धागों का एक गट्टा उलझा पड़ा है पलंग के नीचे कहीं पहले छोटा था धीरे धीरे बड़ा हो गया है मोटा हो गया है पहले सुलझ सकता था शायद अब कोई गुंजाईश नहीं काटने पड़ेंगे कुछ धागे एक - एक करके. कई पत्ते बिखरे थे कल रास्ते में बचकर चलना चाहती थी पत्तों को कुचलना वो दर्द भरी चीख अच्छी नहीं लगती. पर बावजूद कोशिशों के, दस-पंद्रह तो मर ही गए , बिचारे! पहले से ही अधमरे थे.

स्पेक्स से झांकती वो जुड़वाँ आँखें...

डरी डरी सी सहमी आँखें , कहती फिर रूकती कुछ सोचती सी आँखें । ख्यालों में डूबी , उडती या तैरती सी आखें, जागी सी हैं फिर क्यूँ लगे सोती सी आँखें। रोती रहे फिर क्यूँ दिखे हंसती सी आँखें, कुछ दिखाती बाकी सब छिपाती सी आँखें। खुद से जाने क्या बतियाती सी आँखें, झपकती , खुलती , फुदकती सी आँखें। मस्ती भरी खिलखिलाती सी आँखें, कभी कभी छलछलाती सी आँखे । प्यार से पुचकारती, तो कभी शर्माती सी आँखें। स्पेक्स के दायरे में सिमित , एक अलग संसार सी आँखें... स्पेक्स से झांकती वो जुड़वाँ आँखें...

में चाँद हूँ

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में चाँद हूँ ! रौशनी से नहाया हुआ, अँधेरी गुफा में मिटने आया तिमिर का साया। किसी ने मुझे देखा खूबसूरती के परदे में तो किसी ने माना मुझे प्रेम रस का प्याला, पर माधुर्य और सौन्दर्य से अलग, आज एक रूप मैंने बनाया । ओजस्वी चाँद तब में कहलाया... रौशनी से नहाया हुआ, अँधेरी गुफा में मिटाने आया तिमिर का साया ।