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Showing posts from 2012

वे दिन ...

तुम यकीन कर सकते हो- मैं फिर से निर्मल वर्मा को पढ़ रही हूँ। मुझे लगने लगा है की जो लोग अकेले रहना जानते हैं (सिर्फ शारीरिक तौर पर नहीं, मानसिक तौर पर भी) उन्हें कोई न कोई अच्छा साथी ज़रूर मिल जाता है। अब देखो ये कितना बड़ा संयोग है (या कुछ और ही - अजीब सा ) की मैं इतने दिन यह किताब पढना टालती रही और आज - आज बहुत रो चुकने के बाद मैंने यह किताब उठायी। मुझे अजीब सा विश्वास है- निर्मल वर्मा पर की बहुत दुःख होने पर अगर उन्हें पढ़ा जाए तो इनका साहित्य दवा  का काम करेगा। ' एक चिथड़ा सुख' में मैं इनके दुःख की परिभाषा अब तक नहीं भूली हूँ। बहुत ही द्र्श्यात्मक, काव्यात्मक, और कल्पनात्मक परिभाषा थी। ऐसी की इंसान पढ़े भी, समझे भी, महसूस भी करे और कभी यूँ ही एक दिन धोखे में उसे जी भी ले . खैर मैं दुसरे उपन्यास के बारे में बता रही थी। 'वे दिन' पर इन्हें ज्ञानपीठ पुरूस्कार मिला है। और यह पढने का सुअवसर मुझे अपने ही निर्णय के कारन प्राप्त हुआ है। एम् . ऐ (फ़ाइनल) के आखरी पेपर में मुझे कई विकल्प में से एक रचनाकार को चुनना था, सो ये पहले से ही मेरे मन में था की मैं निर्मल वर्मा को

मृत्युंजय - एक चरित्र, अनंत कहानी

कर्ण ! अब ये मेरे लिए एक नाम या महाभारत का एक चरित्र मात्र  नहीं रह गया है।  आज मृत्युंजय  उपन्यास पूरा हुआ। किसी भी कार्य के शुरू होने से उसके पुरे होने की भी एक कहानी होती है। लेकिन आज वह नहीं। यूँ तो विचारों के कई बुलबुले जैसे  कई दिशाओं में फेल गए हैं , लेकिन मैं मात्र एक को लेकर चलूंगी। अब , आखिर, अब भटकना उचित नहीं।  पांच पांडव या कर्ण  - इनमे से कौन श्रेष्ठ है? ये सवाल नहीं, ये विचारों का जाल है। श्रेष्ठता को सिद्ध करना इतना आसान नहीं और वो करने वाली मैं कुछ भी नहीं - - - लेकिन - - - कर्ण श्रेष्ठ है--- और अगर है तो उसकी श्रेष्ठता का कारण क्या है - - -  कर्ण का जीवन भयंकर संघर्षमय रहा और यह उपन्यास शत-प्रतिशत उसके संघर्षों को प्रकट करने में सफल रहा है। कर्ण की श्रेष्ठता के कुछ बिंदु जग-जाहिर हैं -वह महा-पराक्रमी , महावीर, अर्जुन से भी कुशल योद्धा था, उसकी ख्याति दिग्विजय कर्ण की जगह दान-वीर कर्ण के कारन हुई, लेकिन इससे भी श्रेष्ठ गुणों से वह युक्त वीर था - वह था - स्थिर बुद्धि, वचन-बद्धता। इसे ही कृष्ण ने आदर्शवादिता कहा है और इसीलिए उन्होंने कर्ण की जगह पांच पांडव को

अध्-पके विचार - मृत्युंजय (शिवाजी सावंत)

मेरा मन अभी कितने भावों का क्रीडा-स्थल बना हुआ है, मैं बता नहीं सकती। एक लम्बी यात्रा से जब घर पहुंची तो इस बात का अंदाजा भी नहीं था की मम्मी  ने मेरे लिए 'मृत्युंजय' लाकर रखी होगी . न जाने कबसे इस पुस्तक को पढने की हार्दिक इच्छा मन में थी।दो-तीन दिन ही हुए हैं किताब शुरू किये हुए, लेकिन मन में न जाने कितने विचार आ गए।  विचारों की तो छोडिये, न जाने कितने भाव जो किरदारों ने महसूस किये वो मेरे मनचले मन ने भी कर डाले। मृत्युंजय , महशूर मराठी उपन्यासकार , शिवाजी सावंत द्वारा लिखित एक बेहद लोकप्रिय उपन्यास है। महाभारत की इस व्याख्या का मुख्या किरदार, वो भूला हुआ सूर्य-पुत्र , ज्येष्ठ पांडव कर्ण  है, जिसका जीवन स्वयम में जीवन की एक श्रेष्ठ पाठशाला है। महाभारत को साधारण दृष्टि से देखने पर यह मात्र एक अट्ठारह दिवसीय धर्म-युद्ध हो सकता है परन्तु अन्य महा-काव्यों की भाँती यह भी मानव और नियति सम्बन्धी कई गुत्थियों पर प्रकाश डालता है। यूँ तो अब तक की कहानी पढ़ कर मन में कई विचार चक्कर लगाते  रहते हैं परन्तु एक विचार जो दिल मैं पैठ सा गया है वह यह की - जब सूर्य-पुत्र , पराक्रमी  योद्धा

अमृता प्रीतम : एक मर्द , एक औरत

"तुमने पिक्चर ऑफ़ डोरियन ग्रे पढ़ी है?" मर्द ने पुछा?  "   पिक्चर ऑफ़ डोरियन ग्रे   "?  "ओस्कर वाइल्ड का मशहूर उपन्यास. " "मेरा ख्याल है, कोलेज के दिनों में पढ़ी थी, पर इस वक्त याद नहीं...शायद उसमे पेंटिंग की कोई बात थी.." "हाँ... पेंटिंग की. वह एक बड़े हसीं आदमी की पेंटिंग थी..." "फिर शायद वह आदमी हसीं नहीं रहा था और उसके सात ही उसकी पेंटिंग बदल गयी थी .. कुछ ऐसी ही बात थी... " "नहीं, वह उसकी दिखती शक्ल के साथ नहीं  बदली थी, उसके मन की हालत से बदली थी. रोज़ बदलती थी." "अब मुझे याद आ गया है. आदमी उसी तरह हसीं रहा था पर पेंटिंग के मुह पर झुर्रियां पढ़ गयी थी..." .... (अमृता प्रीतम : एक मर्द , एक औरत से उद्धरण )   पिछले दिनों में पढ़ी हुई हिंदी कहानियों में से समबसे उम्दा कहानी!!!

अमृता प्रीतम : "सात सौ बीस कदम".

न जाने क्या मन हुआ, निर्मल वर्मा की ' वे दिन' के  साथ   अमृता प्रीतम की एक कहानियों की किताब उठा ली - नाम है - "सात सौ बीस कदम".  अमृता प्रीतम की आत्म-कथा पढ़ी थी - रसीदी टिकिट' तभी से मन में था की इन्हें और पढना है... अभी सिर्फ दो कहानियाँ पढ़ी होंगी, लेकिन मन में कई विचार आ रहे हैं.  मन में एक तरह का द्वंद्व हमेशा चलता रहता है. एक तरफ मन कहता है, जैसे सब लिख रहें हैं, वैसे तुम भी लिखो , लेकिन फिर, वर्मा और प्रीतम जैसे लेखकों को पढ़कर मन पर लगाम लग जाती है. मन कहता है - नहीं! लिखो लेकिन तब जब शब्द दिल से निकले, अनुभूति में खुद के अनुभवों की महक हो , वही लिखो जो भोगा हो, देखा हो और देख कर दिल बैठ गया हो या आह उठी हो... और लिखकर दिखाओ केवल तब जब खुद को संतुष्टि हो - जब तुमने वैसा लिखा हो, जैसा तुम्हे पढना पसंद हो... 

निर्मल वर्मा - और आत्मालाप

मैंने सोचा नहीं था इतना जल्दी निर्मल वर्मा को पढ़ पाऊँगी, पर हार्डी के बाद उन्हें पढना अच्छा लग रहा है , ऐसा जैसे, 'दुःख' के एक चेप्टर से दूसरे चेप्टर पर आ गयी हूँ...  बिलकुल अंदेशा न था, पर ऐसा ही हुआ, इस उपन्यास ने मुझे (मेरे अंदर बहुत कुछ जिसे मैंने एकत्रित कर लिया था उसे) decenter कर दिया है. जैसे चार पाए पर खड़े दो लड़खडाते पैरों के निचे से पाए खीच लिए हो... पूरी रात सो नहीं पायी (उपर से तेज़ थर्राती बारिश की आवाज़..).. पता नहीं रात में मैंने कितनी बार तड़पते हुए, गुस्से में बिलबिलाते हुए खुद से कहा - this text is cruel. ये मुझे अंदर ही अंदर खाते जा रहा था... the narrative is so haunting... जैसे कांच पर ढूंढ़ जम गयी हो ओर साधारण चीज़ भी असाधारण हो गयी हो... just like a blur image...देख लेने पर भी कुछ देखा न हो, बहुत कुछ छुट गया हो ऐसा एहसास - एक अनाम अधूरापन जो खुद की तहों को खोलने-टटोलने की कोशिश करता है - ओर जिसमे बहु पीड़ा होती है ... वर्मा का यह उपन्यास, सच कहूँ तो, पीड़ा-दायक है, it dissects, चीर-फाड़  करता है . आप चिल्लाते रहेंगे की कोई फोड़ा नहीं है - पर

'एक चीथड़ा सुख'

"...उसके ड्राइंग मास्टर क्लास में कहते थे - देखो, ये सेब है. यह सेब टेबल पर रखा है. इसे ध्यान से देखो. सीढ़ी आँखों से - एक सुन्न निगाह सुई की नोक-सी सेब पर बिंध जाती. वह धीरे धीरे हवा में घुलने लगता गायब हो जाता. फिर, फिर अचानक पता चलता - सेब वहीँ है, मेज पर जैसा का तैसा - सिर्फ वह अलग हो गया है, कमरे से, दूसरे लड़कों से, मेज ओर कुर्सियों से - और पहली बार सेब को नयी निगाहों से देखा रहा है. नंगा, साबुत, संपूर्ण, ... इतना संपूर्ण की वह भयभीत सा हो जाता है, भयभीत ही नहीं- सिर्फ एक अजीब - सा विस्मय पकड़ लेता, जैसे किसी ने उसकी आँखों से पट्टी खोल दी है... "   ( 'एक चीथड़ा सुख'  ,  निर्मल वर्मा  ) कई दिनों से मेरी नज़र उस पर पड़ी थी. माँ ने देख लिया था मैं उनकी लाइब्रेरी से छेड़खानी कर रही हूँ. जैसे ही उन्होंने मेरे हाथ में निर्मल वर्मा की 'एक चीथड़ा सुख' देखी, उन्होंने सर ना में हिलाया , जैसे उन्हें इस किताब पर मेरा स्पर्श पसंद न हो... उस वक्त मैंने किताब को और दूसरी किताबों के बीच दफना दिया... पर उसी वक्त कहीं मैं दिल में जानती थी की कुछ दिन बाद मैं फिर इस
झूठ और सच के  परे एक आदम कद चेहरा है जिसके गहन गंभीर भावों में  लिखा है -  "अहम् ब्रह्मास्मि" !!!

प्रार्थना

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खोना व्यर्थ न हो मेरा ; मेरा खोना भी हो पाने जैसा ही...
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मैं हूँ  भी और नहीं भी क्या होने से मेरे मुझे खुद भी फर्क पड़ता है

इंतज़ार

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  आइ एम रिअली वेरी सोरी , मैं उस दिन घर नहीं आ सका. नहीं... कोई बात नहीं... मुझे इंतज़ार करना पसंद है ओह.. सच तुम मेरा इंतज़ार कर रही थी ? हाँ... शायद... या इस बात का कि तुम आओ ही न और ज़िन्दगी बस यूँही एक इंतज़ार में कट जाये... *-------------------------------*----------------------------------* "ज़िन्दगी क्या है?" "एक लम्बा इंतज़ार ! प्यार... और फिर बिछड़ जाने का डर ..." *----------------------------------*--------------------------------* कभी खुद को रोक नहीं पाती और पतझड़ कि टूटी टहनी सी गिर पड़ती हूँ...धीरे से खुद से पूछती हूँ... क्यूँ तोडा वो मौन, वो अंतहीन इंतज़ार...? ... फिर एक हवा कंपकपाती छु कर निकलती है... भीतर ही कहीं से आवाज़ आती है...इंतज़ार का ही नया एक अध्याय शुरू करने के लिए... 

सच्चा सुख और सृजन

जीवन के एक सूत्र को भी किसी माध्यम से जाहिर कर देने में कितना सुख है. सच्चा सुख और सृजन दो अलग बातें हो ही नहीं सकती. चाहे किसी कला के माध्यम से सृजन हो या प्रेम में अभूतपूर्व क्षणों का सृजन हो हमेशा सृजन में सच्चा सुख छिपा होता है.

शेखर एक जीवनी: जीवन अभी और भी बाकी है...

शेखर चलता रहा चलते चलते जब थक गया तो भी बैठा नहीं सिर्फ रुक गया पर चलने की प्रक्रिया को मन में दुहराता रहा चलना ज़रूरी हो गया था ... हो जाता है कभी कभी... "इट्स डल टू थिंक अबाउट आईदीअलिजम" ! शारदा ! शान्ति ! शशि ! मन में कोई हंसा , क्या तुने सभी को अपने अंश के रूप में ही  चित्रित किया? हाँ उससे परे मन देख भी कहाँ सका है? पर... साहित्य ! साधना ! सेवा ! पुरुष होने का दंभ. कुछ है जो मैं समझ नहीं पा रही. कुछ है जो मैं समझना नहीं चाहती. सहानुभूति  नहीं पैदा करना चाहती मन में शायद. शेखर इन सब से कुछ उपर है. बेचने के लिए लिखा हुआ साहित्य नहीं. ये द्वंद्व ! ... वह इक्कीस  साल का शेखर और... एक पोथा लिखा "हमारा समाज' , कितने में बिकेगा, दो रूपए. हूँ. और फिर दुनिया बदल जाती है. 'हमारा समाज' बिक जाता है. बेच दिया जाता है. समाज में कितना कुछ है जिसे बदलने की आग मन में धधकती है. पर यहाँ ... सबसे मन दूर चला जाता है.. निरे अन्धकार में... एक बचकानी सी बात मन में आई है...शेखर के आगे की जीवनी लिखूं. या क्यूँ न शशि की ही एक जीवनी लिख डालूं कितना कुछ होगा शशि के म

बाणभट्ट कि आत्मकथा - महामाया

महामाया  - "पुरुष वस्तु-विछिन भाव रूप सत्य में आनंद प्राप्त करता है, स्त्री वस्तु-परिगृहीत रूप में रस पाती है. पुरुष निःसंग है , स्त्री आसक्त, पुरुष निर्द्वंद्व है, स्त्री द्वन्द्वोमुखी , पुरुष मुक्त है स्त्री बद्ध. पुरुष स्त्री को शक्ति समझ कर ही पूर्ण हो सकता है, पर स्त्री , स्त्री को शक्ति समझ कर अधूरी रह जाती है. ... तू क्या अपने को पुरुष और मुझे स्त्री समझ रहा है?  मुझमे पुरुष कि अपेक्षा प्रकृति कि अभिव्यक्ति कि मात्र अधिक है , इसीलिए मैं स्त्री हूँ. तुझमे पृकृति कि अपेक्षा पुरुष कि अभिव्यक्ति अधिक है , इसीलिए तू पुरुष है. " "...परम शिव से दो तत्त्व एक ही साथ प्रकट हुए थे - शिव और शक्ति. शिव विधिरूप है और शक्ति निषेधरूपा. इन्ही दोनों तत्वों के प्रस्पंद-विस्पंद से यह संसार आभासित हो रहा है. पिंड में शिव का प्राधान्य ही पुरुष है और शक्ति का प्राधान्य नारी है. ... जहाँ कहीं अपने आप को उत्सर्ग करने कि, अपने-आपको खपा देने कि भावना प्रधान है वहीँ नारी है. जहाँ कहीं दुःख सुख कि लाख लाख धाराओं में अपने को दलित द्राक्षा के समान निचोड़ कर दूसरे को तृप्त करने कि भावना

गुनाहों का देवता

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 बड़ा अद्भुत है ये! एक माँ अच्छे से जानती है बच्चे को कब क्या खुराक देनी है वैसे ही भगवान् जानते होंगे कि मन को कब किस खुराक कि जरुरत होती है. इस महीने दो अद्भुत  पुस्तकें पढ़ी. एक, बाणभट्ट कि आत्मकथा, जिसने ये बताया कि , स्वयं को निःशेष भाव से दे देना ही वशीकरण है. दूसरी, गुनाहों का देवता, जिसने ये बताया को स्वयं को निःशेष भाव से कैसे दिया जाता है. मन में कब से इच्छा थी धर्मवीर भारती कि , गुनाहों का देवता पढने कि, पर पढने के बाद मन अजीब सा हो गया है. मैं यह तय नहीं कर पा रही हूँ कि ऐसा क्या था इसमें जिसने मुझे छू लिया हो या मुझसे कुछ मेरी ही भूली कहानी कह दी हो. हाँ! इसे पढ़ते समय कुछ ऐसा लगा -  जब स्वयं का ही जीवन एक प्रेत कि गुफा जैसा हो, मन ने कभी देवता कि प्रतिमा खंडित कर मंदिर को अपवित्र कर दिया हो,और  गुनाहों का देवता जब खुद में कहीं ही बसा हो तो उसे अक्षरों में पढने कि क्या जरुरत.  खैर! उपन्यास पड़ने का बाद अब मुझे लेश मात्र भी आश्चर्य नहीं कि क्यूँ यह इतना प्रसिद्द है. " ये आज फिजा खामोश है क्यूँ, हर ज़र्र को आखिर होश है क्यूँ?  या तुम ही किसी के हो न सके, या कोई त

बाणभट की आत्मकथा

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ऐसा अक्सर कम ही होता है की कोई किताब पढ़कर एक सिरहन सी पुरे शरीर में दौड़ जाती है. मुझे याद है पिछली गर्मियों की छुट्टी में 'लस्ट फॉर लाइफ' पढ़कर मै इतनी खो गयी थी की खुद को रोक ही नहीं सकी और जैसे ही बुक ख़त्म हुई अपने विचार लिख डाले. आज भी जब वो लेख पढ़ती हूँ तो लगता है की वो शब्द मेरे अंदर की गहराइयों से निकले थे और सूरजमुखी की भांति खिल गए थे. ऐसी ही अंदर तक झकझोर देने वाली किताब मैंने इन दिनों पढ़ी, 'बाणभट की आत्मकथा", हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित.  कई बार जो विचार अंग्रेजी उपन्यास पढ़कर समझे वही अपनी भाषा में पढ़कर ऐसा लगा मानो ऐसा पहले कभी नहीं पढ़ा. भारत की भूमि ऐसी है की यहाँ जन्म लेने वाली हर स्त्री खुद को किसी न किसी अपराध की दोषी मानती है. सदियों से उनके मस्तिष्क में ये बात घुसा दी गयी है की उसका स्त्री होना ही अभिशाप है, उसकी देह अशुद्ध है और वह माया स्वरूप है. पर इस चंचल मना के बारे में लेखक नयी ये नयी बात बताते हैं-  "साधारणतः जिन स्त्रियों को चंचल और कुलभ्रष्ट माना जाता है उनमे एक देविय शक्ति भी होती है." संपूर्ण उपन्यास में ए