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Showing posts from April, 2014

परीक्षित

"तुम्हे पता है तुम बहुत खुदगर्ज़ हो " " हाँ मुझे पता है. … आई लव यू  परीक्षित " " फिर भी मुझे छोड़ कर जा रही हो। " " ज़रूरी है  … क्यूंकि   … " "मुझसे ज्यादा प्यार तुम खुद से करती हो " "शायद  … लेकिन मैं कैसे बताऊँ तुम्हे की इस शहर में मेरा दम घुटता है। । इन लोगों के बीच  … इस भीड़ में  … मेरे सपने अलग हैं  … हम कभी साथ रह ही नहीं सकते परीक्षित " , इससे पहले परीक्षित श्रुति को रोक पाता , श्रुति आठ साल के रिश्ते को पीछे छोड़ कर चली गयी। पचास - पचास माले की ऊँची इमारतों के पीछे सूरज होले - से गुम  हो गया।  परीक्षित अंधेरों को नापते हुए बालकनी में आ कर खड़ा हो गया. उसके एक हाथ में से सफ़ेद कागज़ हवा में उड़ गए  … वो सिर्फ कागज़ नहीं थे श्रुति के सपनों का स्केच था - एनजीओ की बिल्डिंग का स्केच  … परीक्षित की आँखों में न आंसू थे , न हाथ में शराब  … उसके दिल में बस एक गहरा चुभने वाला अफ़सोस था कि वो श्रुति को वक़्त पर  ये विश्वास नहीं दिला सका कि वो भी उसके सपनों का हिस्सेदार है।

आशय

वो नहीं जानता उसे क्या करना है। मैं नहीं जानती मुझे क्या करना है। सब लोग कहते थे प्यार करना आसान है ( और हमें आसानी से हो भी गया) बात ये नहीं की हम खुश नहीं हैं, लेकिन हम ये नहीं जानते इसके आगे क्या है … आशय अक्सर कुछ उलझा-सा, कुछ भी कहीं से भी जोड़ने में रहता है … मैं अक्सर दूर कहीं जाकर एक नयी ज़िन्दगी शुरू करने की सोचने लगती हूँ … मुझे लगता है कमी मुझमें। उसे लगता है कमी उसमे है। हम बहुत खुश हैं … कल शाम चाय पीते - पीते  वो आकाश में ऊँचे एयरोप्लेन की उड़ान देखने लगा (वो हमेशा से पाइलट बनना चाहता था।) कभी - कभी सोचती हूँ क्या हम वो सब कुछ-  सब कुछ कर सकते हैं जो करना चाहते हैं, जिस तरह से जीना  चाहते हैं। अक्सर आशय को देख कर सोचती हूँ, बिना अर्थ के जीवन कितना निरर्थक है खाली है,  कब ढूंढ  सकेगा वो अपने जीवन का आशय, और मैं …कब पा सकुंगी आशय अपने जीवन का ।