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Showing posts from March, 2016

कहानी के चरित्र

आज-कल कहानियाँ पढ़ने का चस्का-सा लग गया है , अक्सर रात को सोने से पहले हिंदी समय या अभिव्यक्ति ब्लॉग पर एक कहानी पढ़ कर ही सोती हूँ।  यूँ तो हम कई कहानियाँ पढ़ते हैं , पर चरित्र प्रधान आधुनिक कहानियाँ कभी-कभी दिल को इतना छू  लेती हैं की लगता है ये कुछ जाना-पहचाना-सा है।  हाल ही में पढ़ी कुछ मन पसंद कहानियाँ हैं - रोज़ (अज्ञेय) , ठेस (फणीश्वरनाथ रेनू ) , मिस पॉल (मोहन राकेश) कल मिस पॉल पढ़ी तो ऐसा लगा कि कभी कभी कहानी के भीतर का संसार कितना यथार्थ लगता है , मानो  आप कहानी के भीतर ही हों, किसी अदृश्य पात्र की तरह।  मेरे खयाल में हिंदी साहित्य को वर्तमान रूप देने वाली चुनिंदा कृतियाँ एवम रचनाएँ तो सभी साहित्य-प्रेमियों को पढ़नी  चाहिए।  ऐसा करते समय आप कविता का भी उतना ही आनंद लेंगे जितना की कहानी या उपन्यास का।  इस दृष्टि से, मैं कहूँगी की आप निराला की "राम की शक्तिपूजा" भी अवश्य पढ़िए।   अगली कहानी की खासियत साझा करने फिर मिलूंगी , तब तक के लिए  ... होली की ढेरों शुभकामनाएँ।  :)

बोझ

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किसी भी लड़की के लिए इससे अच्छी बात क्या हो सकती है की उसका एक घर हो, अच्छी गृहस्थी   हो, पति बहुत प्यार करने वाला हो और सास-ससुर बेटी की तरह रखते हों।  प्रीतम के भी ऐसा ही था।  लेकिन कभी कभी वह खुद से पूछ लिया करती की ," खुश रहने के लिए क्या यह काफी है ?" जवाब जो भी हो , उसका कोई मतलब नहीं था अब।  शादी को तीन साल होने आ गए थे।  कई दिन  अच्छे - से, एक जैसे जाते , किन्तु बीच-बीच में  उसका मन उखड जाता।  तब वह बीते दिनों को याद करने लगती।  मनजीत   की याद तो उसे सबसे ज्यादा आती थी , आखिर वो एक अनसुलझी पहेली  जो था।  कॉलेज के आखरी दिन उसने ग्राउंड के पीछे बुला कर प्रीतम से कहा था की , "तुम मुझे अच्छी लगती हो। " प्रीतम ने " हम्म " कह कर बात टाल  दी थी।  तब उसे समझ ही नहीं आया , अच्छा लगने  का क्या मतलब  है।  आज सुबह प्रेस के कपड़ों की गठरी उठा कर वह चल दी थी।  जब प्रीतम का मन उखड जाता तो किसी भी बहाने घर से पैदल निकल लिया करती थी। आज सुबह से ही उसे जैसे उसे कांटे चुभ रहे थे कि , "कुछ अच्छा नहीं लग रहा।" वह मन ही मन सोचती की ,"अच्छा तो यह होता क

एक भीगा हुआ-सा स्वप्न

कल रात की तो नहीं ... शायद कई दिन पहले की बात है।  फिर से एक ऐसा सपना देखा मैंने, मानो कोई  रहस्यमयी कहानी पढ़ी हो।  एक हरा-भरा मैदान जिस पर  आगे चलते हुए एक झरना पड़ता है।  बहुत दिव्य, मनमोहक झरना।  झरने के पीछे एक गुफा जिसमे एक दिव्य गन्धर्व रुपी जोड़ा अभिसार कर रहा है।  उनकी क्रीड़ाएँ मन में गुदगुदी करने वाली थीं।  वे हँसते दौड़ते छेड़ते खेलते रंग उड़ाते कभी पानी में नहाते  ... ऐसी दिव्यता थी उनकी हर क्रिया में मा नो वो ज़मी स्वर्ग का कोई टुकड़ा हो।  मैं अभिभूत होती हुई आगे बढ़ती जा रही थी की अचानक ठिठक गयी उन्होंने मुझे एक पल  आश्चर्य से देखा , वह स्त्री दूजे ही पल निर्जन वन में गायब हो गयी।  मैं देखती रह गयी।  मैं भी भागने को हुई किन्तु उस  ... उस मनुष्य रुपी देवता ने मेरा हाथ पकड़ लिया।  वह न जाने कब तक मुझे देखता ही रहा - कई भाव उसके चेहरे पर आये और गए , मैं कुछ समझ नहीं पायी, जैसे किसी ने मुझे वश  में कर लिया हो।  धीरे-धीरे स्वप्न के उस धुंधले प्रकाश में मैंने देखा , वह मेरे पैरों में झुका था  ... स्वप्न में मैंने बहुत देर बाद जाना , मैं पत्थर की मूर्ति हूँ , भीतर बहुत-से प्रश्न उबल रहे

हर बार की तरह

ये शरारत  अच्छी नहीं तुम्हारी  हर बार की तरह  इस बार कहना न, "तुम्हारा दिल रखने के लिए , बस यूँ ही  ... "

वो एक आशिक था

वो अचानक से कहने लगा।  रूहानी थोड़ा सुनती, थोड़ा समझने की कोशिश करती , उसकी वो अजीब बातें ।  वो कहता, तुम्हारी याद आती है।  तुमसे जुडी हर चीज़ मुझे यहाँ - तहाँ दिखाई देने लगती है।  वो तुम्हारा पसंदीदा शब्द "विश्वास" तो न जाने क्यों मेरे पीछे सा पड़ गया है। कहते हैं न, जिससे प्यार हो उससे जुडी हर चीज़ से प्यार हो जाता है।  रुहानी को सुन कर अचम्भा - सा होता है। वो फिर भी कहता जाता , पागलों की तरह जैसे मानो जहाँ हो वहाँ आकाश में चिल्ला रहा हो , की आज मैं भरा-भरा सा हूँ, खुला-खुला सा हूँ , जी करता है ये सब प्यार लूटा दूँ किसी पर। रूहानी आँखे बंद कर के महसूस करना चाहती है।  वो फिर अचानक से पूछता है  , तुम्हे नहीं पता था ये? रूहानी धीरे से कहती है, "नहीं।"  "सच ! नहीं पता था?" " नहीं ! बिल्कुल भी नहीं। " "मुझे लगता था तुम मुझे जानती हो। " रुहानीअपने मन से पूछती है , "क्या मैं उसे जानती हूँ ?" मन उसी की तरह भोला , भुला , भटका हुआ -सा कहता है , "मुझे तो इतना ही पता था, की वो एक आशिक था। " रूहानी खोयी - सी सोच में पड़ जाती है ,

गोदान - एक विचार

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आज फिर से गोदान पढ़ा।  पढ़ना था परीक्षा की तैयारी के लिए।  मतलब , जो ख़ास तथ्य ,चरित्र इत्यादि हैं उन्हें रट  लो , किन्तु मन जो कथा में उलझता गया , परीक्षा का ख्याल ही भूल गयी।  और अंत.... एक घुटी रुलायी ... आख़िर यह उपन्यास है या  निचोड़ , और वह भी ऐसा कि जिसमे जीवन का हर वो रस घुला है जो कम से कम भारत का हर व्यक्ति महसूस कर सकता है। आज गोदान पढ़ कर लगा, इसके  हर भाग , हर संवाद , हर सूक्ति पर कई-कई  शोध लेख लिखे जा सकते हैं। शोध लेख तो फिर कभी , पर इस उपन्यास  का एक कथन  मैं आज आपके सामने रखना चाहती हूँ। गोदान उपन्यास में प्रेमचंद ने शहरी जीवन के इतने रंग-बिरंगी और प्रामाणिक चित्र  उकेरे हैं कि हमें लगता है ये पात्र हमारे ही जीवन के अभिन्न अंग हैं।  ऐसे ही पात्रों में हैं - मि. मेहता , मिस मालती और गोविंदी देवी।  ये तीन ही  क्यों ? क्यूंकि असल में ये तीन ही पात्र हैं जो अपने जीवन में सच्चाई , सरलता और प्रकृति के निकट हैं या जाना चाहते हैं।  मि मेहता बहुत आदर्शवादी हैं , उनके विचार स्पष्ट और उच्च कोटि के हैं।  मिस मालती शुरू में चहकती फुदकती तितली - सी लगती है किन्तु धीरे धीरे मि मेहता