समर्पण की कसौटी

एक ही बात रह रह कर मन में आती है , तू उनकी होने वाली है। मनसा होना एक बात है, कर्म से, रीती से बंधन में बंध जाना दूसरी। क्या उनको पति रूप में पाने के लिए तैयार हूँ? सारे भाव उनको समर्पित करने को तैयार हूँ? क्या ये बड़ी बात है ? नहीं तो , क्या ये इतनी छोटी सी बात है? क्या यह सच में होना है ? नहीं भी होना , तो मन अभी से इतने भावों से घिरा क्यूँ है? क्यूँ लगता है की , वो यहीं हैं , मेरी इस बचकानी सी बैचैनी पर मंद मंद मुस्कुरा रहे हैं। सच कहूँ तो लगता है ये समर्पण की कसौटी है। मैंने बंधन-मुक्त होने का भरसक प्रयास किया। रिश्तों को नाम देने से कतराती रही। तो शायद ये गुस्साए होंगे, बोले होंगे , थोडा बंधन का रस उन्हें भी दिया जाये। तभी से मुझे बंधन में बांधना शुरू किया। खुद ही कभी भैय्या बन कर आते , कभी बहन , कभी सहेली , कभी माँ की ममता के बंधन से बाँध लेते ... मैं बंधन से छूटने को छटपटाती भी , और बंधन से मुग्ध भी हो जाती ... ऐसा बंधन भी कितना काम्य है ... लेकिन समर्पण ! समर्पण आसान नहीं ... विद्यानिवास मिश्र जी कहते हैं , " ज्ञान , प्रकाश , अच्छ...