बाणभट की आत्मकथा
ऐसा अक्सर कम ही होता है की कोई किताब पढ़कर एक सिरहन सी पुरे शरीर में दौड़ जाती है. मुझे याद है पिछली गर्मियों की छुट्टी में 'लस्ट फॉर लाइफ' पढ़कर मै इतनी खो गयी थी की खुद को रोक ही नहीं सकी और जैसे ही बुक ख़त्म हुई अपने विचार लिख डाले. आज भी जब वो लेख पढ़ती हूँ तो लगता है की वो शब्द मेरे अंदर की गहराइयों से निकले थे और सूरजमुखी की भांति खिल गए थे. ऐसी ही अंदर तक झकझोर देने वाली किताब मैंने इन दिनों पढ़ी, 'बाणभट की आत्मकथा", हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित.
कई बार जो विचार अंग्रेजी उपन्यास पढ़कर समझे वही अपनी भाषा में पढ़कर ऐसा लगा मानो ऐसा पहले कभी नहीं पढ़ा. भारत की भूमि ऐसी है की यहाँ जन्म लेने वाली हर स्त्री खुद को किसी न किसी अपराध की दोषी मानती है. सदियों से उनके मस्तिष्क में ये बात घुसा दी गयी है की उसका स्त्री होना ही अभिशाप है, उसकी देह अशुद्ध है और वह माया स्वरूप है. पर इस चंचल मना के बारे में लेखक नयी ये नयी बात बताते हैं-
संपूर्ण उपन्यास में एक तरह का द्वंद्व लक्षित है. सभी पात्र सत्य के पूर्ण रूप को प्राप्त कर लेना चाहते हैं, इश्वर को प्राप्त कर लेना चाहते हैं, परन्तु इश्वर है कहाँ? धर्म में? शास्त्र में? संसार में? कर्त्तव्य में? प्रेम में? कहाँ है इश्वर? सत्य क्या है? अघोरभैरव बाणभट को उसका सच इन शब्दों के माध्यम से दिखाते हैं ,
"देख रे, तेरे शास्त्र तुझे दोखा देते हैं. जो तेरे भीतर सत्य है उसे दबाने को कहते हैं; जों तेरे भीतर मोहन है उसे भुलाने को कहते हैं; जिसे तू पूजता है उसे छोड़ने को कहते हैं. ... इस ब्रह्माण्ड का प्रत्येक अणु देवता है. देवता ने तुझे जिस रूप में सबसे अधिक मोहित किया है उसी की पूजा कर."
मनुष्य कितना अँधा है. जिसे धर्म समझ कर पूजता रहता है वो सच्चा धर्म नहीं होता और जिसे अधर्म समझ कर छोड़ देता है वही उसका सच्चा धर्म होता है. धर्म सर्वथा नियम और आचार में बंधा नहीं होता. उसे मन की आँखों से परखना और आत्मा की कसौटी पर जांचना होता है . हर मनुष्य का सत्य अलग होता है या यूँ कहना उचित होगा की सत्य हर मनुष्य के समक्ष भिन्न रूप में प्रकट होता है. सुचरिता कहती है , " क्यूँ नहीं मनुष्य अपने सत्य को अपना देवता समझ लेता है , आर्य?" ... "मन बड़ा पापी है, गुरुदेव, वह कब मनुष्य को नारायण रूप में देखेगा."
बाणभट भोला था, आदि से अंत तक पाषाण रूप था, पर वह भोला पाषाण था, अक्सर जिन पाषाणों से देवताओं की मूर्तियाँ बनती हैं. हृदय के भीतर की आवाज़ सुन पाना और उस पर अमल कर पाना भी तो हर मानुष देव के बस की बात नहीं. परन्तु अक्सर स्त्रियों के भीतर की शक्ति पुरुष शक्ति से अधिक होती है. चाहे प्रेम में उत्सर्ग करना हो या रणभूमि में बलिदान देना हो स्त्रियों में देवीय गुणों की प्रधानता होती है. महाराज महामाया के मोह में तो बंधे थे परन्तु उन्हें उनका सच एक योगी दिखता है, " रानी को तुमने कभी छोड़ना नहीं चाह; पर तुमने कभी उसे अपनाने का भी प्रयत्न नहीं किया... तुमने न तो अपने आप को निः शेष भाव से दे ही दिया है, न दुसरे को निः शेष भाव से पाने का ही प्रयत्न किया."
निपुनिया का त्याग इस सन्दर्भ में अतुलनीय है. जीवन में जिस पथ पर वह चलती रही उसका उचित अंत भी उसने ढूंढ़ निकला और अपना जीवन सफल बना लिया. "अपने को निः शेष भाव से दे देना ही वशीकरण है"
ahha, Ojasi
ReplyDeletebahut sundar abhivyakti, kisi pustak ko padhkar usmein kho jaana ek baat hai..par uske baarein mein likh kar, padhne wale ko kho jaane par majbur karna...ek kala hai aur beshak tumhe isme maharat haasil hai :)
thank you Kapil :) mujhe accha laga jaankar ki is lekh me bhi aisi koi shakti thi ki jise padhkar pathak kho jaye :)
ReplyDeleteRead the book, its actually an innovative step in the genre of Hindi Novel. I am dying to read Dwivedi ji's another novel.