अमृता प्रीतम : "सात सौ बीस कदम".
न जाने क्या मन हुआ, निर्मल वर्मा की ' वे दिन' के साथ अमृता प्रीतम की एक कहानियों की किताब उठा ली - नाम है - "सात सौ बीस कदम".
अमृता प्रीतम की आत्म-कथा पढ़ी थी - रसीदी टिकिट' तभी से मन में था की इन्हें और पढना है...
अभी सिर्फ दो कहानियाँ पढ़ी होंगी, लेकिन मन में कई विचार आ रहे हैं. मन में एक तरह का द्वंद्व हमेशा चलता रहता है. एक तरफ मन कहता है, जैसे सब लिख रहें हैं, वैसे तुम भी लिखो , लेकिन फिर, वर्मा और प्रीतम जैसे लेखकों को पढ़कर मन पर लगाम लग जाती है. मन कहता है - नहीं! लिखो लेकिन तब जब शब्द दिल से निकले, अनुभूति में खुद के अनुभवों की महक हो , वही लिखो जो भोगा हो, देखा हो और देख कर दिल बैठ गया हो या आह उठी हो... और लिखकर दिखाओ केवल तब जब खुद को संतुष्टि हो - जब तुमने वैसा लिखा हो, जैसा तुम्हे पढना पसंद हो...
अच्छा पढने का नतीजा अच्छा ही होता है,हमें भी ऐसा लिखने की कोशिश करनी चाहिए जिस से औरो को सद्प्रेरणा मिले...
ReplyDeleteसाधुवाद...
कुँवर जी,