अध्-पके विचार - मृत्युंजय (शिवाजी सावंत)
मेरा मन अभी कितने भावों का क्रीडा-स्थल बना हुआ है, मैं बता नहीं सकती। एक लम्बी यात्रा से जब घर पहुंची तो इस बात का अंदाजा भी नहीं था की मम्मी ने मेरे लिए 'मृत्युंजय' लाकर रखी होगी . न जाने कबसे इस पुस्तक को पढने की हार्दिक इच्छा मन में थी।दो-तीन दिन ही हुए हैं किताब शुरू किये हुए, लेकिन मन में न जाने कितने विचार आ गए। विचारों की तो छोडिये, न जाने कितने भाव जो किरदारों ने महसूस किये वो मेरे मनचले मन ने भी कर डाले।
मृत्युंजय , महशूर मराठी उपन्यासकार , शिवाजी सावंत द्वारा लिखित एक बेहद लोकप्रिय उपन्यास है। महाभारत की इस व्याख्या का मुख्या किरदार, वो भूला हुआ सूर्य-पुत्र , ज्येष्ठ पांडव कर्ण है, जिसका जीवन स्वयम में जीवन की एक श्रेष्ठ पाठशाला है। महाभारत को साधारण दृष्टि से देखने पर यह मात्र एक अट्ठारह दिवसीय धर्म-युद्ध हो सकता है परन्तु अन्य महा-काव्यों की भाँती यह भी मानव और नियति सम्बन्धी कई गुत्थियों पर प्रकाश डालता है।
यूँ तो अब तक की कहानी पढ़ कर मन में कई विचार चक्कर लगाते रहते हैं परन्तु एक विचार जो दिल मैं पैठ सा गया है वह यह की - जब सूर्य-पुत्र , पराक्रमी योद्धा, दानवीर कर्ण ; अर्जुन जैसा धुनार्धर वरदान प्राप्त कुंती, यज्ञफल स्वरुप जन्मी साक्षात सुगंध की देवी द्रौपदी, धर्म-राज युधिष्ठिर, धीर-गंभीर भीष्म पितामह, और स्वयं भगवन स्वरुप श्री कृष्णा ही जब नियति की डोर से बंधे इस पृथ्वी पर मात्र कठपुतली से हैं तो हम साधारण कलयुगी मनुष्य इस बात का दंभ कैसे भरने लगे की हम पृथ्वी की सर्वश्रेष्ठ कृति हैं, और इश्वर-नाम की वस्तु भी शोध का विषय है। क्या सचमुच ही मनुष्य अपनी मुर्खता की चरम-सीमा पर नहीं है?
महा-मानव होते हुए भी इनके मन में शंकाओं, आशाओं की लहरें उठती हैं, इनका भी संयम डांवाडोल होता है, इनसे भी भूलें होती हैं, पाप होत्ता है, - और अगर ये सब नियति की एक महा-लीला के उद्देश्य से होता है तो हमारे जीवन में भी ये सब किसी योजना के तहत नहीं होता होगा? पर अगर ऐसा होता भी है तो प्रश्न ये है की - कैकयी ही क्यूँ? कुंती ही क्यूँ? क्यूँ कर्ण ही ऐसे भाग्य का स्वामी बना? क्यूँ पांडू को ही उस भयंकर श्राप का ग्राही बनना पड़ा ?
खैर! प्रश्नों का अंत नहीं है ... अब जब उगते सूरज का प्रचंड वैभव देखती हूँ तो, पूरा के पूरा महाभारत आँखों के सामने ऐसा खड़ा हो जाता है मानो ये कल की ही बात हो ... सत्य को पहचानने के लिए श्रद्धा और आँगन की तरह खुला मन चाहिए, कोई प्रमाण नहीं ...
मृत्युंजय , महशूर मराठी उपन्यासकार , शिवाजी सावंत द्वारा लिखित एक बेहद लोकप्रिय उपन्यास है। महाभारत की इस व्याख्या का मुख्या किरदार, वो भूला हुआ सूर्य-पुत्र , ज्येष्ठ पांडव कर्ण है, जिसका जीवन स्वयम में जीवन की एक श्रेष्ठ पाठशाला है। महाभारत को साधारण दृष्टि से देखने पर यह मात्र एक अट्ठारह दिवसीय धर्म-युद्ध हो सकता है परन्तु अन्य महा-काव्यों की भाँती यह भी मानव और नियति सम्बन्धी कई गुत्थियों पर प्रकाश डालता है।
यूँ तो अब तक की कहानी पढ़ कर मन में कई विचार चक्कर लगाते रहते हैं परन्तु एक विचार जो दिल मैं पैठ सा गया है वह यह की - जब सूर्य-पुत्र , पराक्रमी योद्धा, दानवीर कर्ण ; अर्जुन जैसा धुनार्धर वरदान प्राप्त कुंती, यज्ञफल स्वरुप जन्मी साक्षात सुगंध की देवी द्रौपदी, धर्म-राज युधिष्ठिर, धीर-गंभीर भीष्म पितामह, और स्वयं भगवन स्वरुप श्री कृष्णा ही जब नियति की डोर से बंधे इस पृथ्वी पर मात्र कठपुतली से हैं तो हम साधारण कलयुगी मनुष्य इस बात का दंभ कैसे भरने लगे की हम पृथ्वी की सर्वश्रेष्ठ कृति हैं, और इश्वर-नाम की वस्तु भी शोध का विषय है। क्या सचमुच ही मनुष्य अपनी मुर्खता की चरम-सीमा पर नहीं है?
महा-मानव होते हुए भी इनके मन में शंकाओं, आशाओं की लहरें उठती हैं, इनका भी संयम डांवाडोल होता है, इनसे भी भूलें होती हैं, पाप होत्ता है, - और अगर ये सब नियति की एक महा-लीला के उद्देश्य से होता है तो हमारे जीवन में भी ये सब किसी योजना के तहत नहीं होता होगा? पर अगर ऐसा होता भी है तो प्रश्न ये है की - कैकयी ही क्यूँ? कुंती ही क्यूँ? क्यूँ कर्ण ही ऐसे भाग्य का स्वामी बना? क्यूँ पांडू को ही उस भयंकर श्राप का ग्राही बनना पड़ा ?
खैर! प्रश्नों का अंत नहीं है ... अब जब उगते सूरज का प्रचंड वैभव देखती हूँ तो, पूरा के पूरा महाभारत आँखों के सामने ऐसा खड़ा हो जाता है मानो ये कल की ही बात हो ... सत्य को पहचानने के लिए श्रद्धा और आँगन की तरह खुला मन चाहिए, कोई प्रमाण नहीं ...
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