अपने अपने अजनबी - अज्ञेय

अज्ञेय निसंदेह पिछली सदी के महानतम रचनाकारों में से एक हैं।  उनके चिंतन की गहराई इतनी है कि कई बार प्रबुद्ध सुधि पाठक भी उस स्तर को छु नहीं पाता।  उनका रचना संसार इतना वृहद् है और सभी विधाओं में उनकी इतनी  पकड़ है कि  ये कहना मुश्किल है कि  वे श्रेष्ठ कवि थे या उपन्यासकार या निबन्ध लेखक या यात्रा - वृत्तान्त लेखक। उनके तीन उपन्यासों में से मैंने बहुत पहले शेखर एक जीवनी के दोनों भाग पढ लेने के बाद , हाल ही में  अपने अपने अजनबी को पढ़ा, जो कि निश्चित ही चिंतन की कसौटी पर रख कर आपको चुनौती देता  है. और आप  … चिंतन के ही मृग्जाल में खो जाते हैं  … 

यह छोटा सा दिखने वाला उपन्यास , जीवन के तीन सबसे बड़े पहलुओं को समेटे हुए है - मृत्यु  ( नहीं मृत्यु तो जीवन के बाद आनी चाहिए - - - इसका मतलब चार पहलु हुए? - - - लेकिन जीवन और मृत्यु दो  भिन्न पहलु कहाँ हैं ?) अतः - जीवन-मृत्यु , स्वतंत्रता-मुक्ति और काल. इन तीनो ही विषयों पर अज्ञेय जी ने बड़ी सूक्ष्मता से विचार किया है.

उपन्यास में दो ही मुख्य चरित्र हैं -  योके , एक जवान लड़की जो बर्फ में घुमने के  लिए जाती है और स्वयं को सेल्मा , एक बूढी औरत के काठघर में पाती है जो की  बर्फ़ गिरने से दब गया है. वह निरंतर इस परिस्तिथि की तुलना  कब्रघर  से करती है.  - 

"कब्रघर के दस दिन … सुना है दसवें दिन मुर्दे उठ बैठते हैं  … "

बर्फ़ के नीचे दबे हुए इस काठघर में समय रुक गया है  … लेकिन समय क्या घडी  की सुइयों का चलना है ? घडी बंद होने पर भी समय नहीं रुकता  …  योके काल / समय के बारे में चिंतन करती है - 

"समय मात्र अनुभव है , इतिहास है. इस सन्दर्भ में , क्षण वही है जिस में अनुभव तो है लेकिन जिसका इतिहास नहीं है. … "

उपन्यास योके की दृष्टि से लिखा गया है , वह शायद सोचती है की इंसान अपनी मर्ज़ी से चीजों का चुनाव कर सकता है , लेकिन बुढिया  सेल्मा सोचती है कुछ भी चुनने के लिए हम स्वतन्त्र नहीं हैं. उनकी  सोच का ये अंतर उनकी उम्र के फासले को भी रेखांकित करता है. जब योके कहती है कि क्रिसमस अभी कितना दूर है तो बूढी सेल्मा, जो केंसर से पीड़ित है कहती है   - 

" योके तुम्हारी अभी उम्र ही  ऐसी है न ! सब कुछ बड़ी दूर लगता है  "

योके उस अहंवादी मानव की प्रतिनिधि है - जो स्वयं को स्वतन्त्र मानता है - 

"तुम जो अपने को स्वतन्त्र मानती हो वही सब कठिनाइयों की जड़ है. न तो हम अकेले हैं, न हम स्वतन्त्र हैं."

उपन्यास का अंत भयावह है. वह अहम् के विस्फोट में होता है, पागलपन की हद में होता है , योके मृत्यु को स्वयं चुन कर अपनी स्वतंत्रता पर मोहर लगाती है  … लेकिन ये वो रास्ता नहीं जहां लेखक हमें ले जाना चाहता है. सच्ची मुक्ति का रास्ता सेल्मा  का रास्ता है , उसका जीवन का निचोड़ , तत्व इन पंक्तियों में है - 

" जीवन सर्वदा ही वह अंतिम कलेवा है जो जीवन देकर ख़रीदा गया है, और जीवन   जलाकर पकाया गया है और जिसका साझा करना ही होगा क्यूंकि वह अकेले गले से उतार नहीं जा सकता - अकेले वह भोगे भुगता ही नहीं। जीवन छोड़ ही देना होता है की वह बना  रहे और भर भर कर मिलता रहे ' सब आश्वासन छोड़ देने होते हैं की ध्रुवता और निश्चय मिले   … यही एक प्रत्यय है जो नए सिरे से जिया जाता है और जब जिया जाता है तब फिर मरा  नहीं जाता , जो प्रकाश पर टिका है और जिसमे अकेलापन नहीं है  … "

संभवतः उपन्यास का ऐसा अंत , अकेलेपन की भयावहता , अहम् की जड़ता , जीवन को पकडे रहने की मुर्खता को दर्शाना के लिए किया गया है. किन्तु यहाँ भी लेखक पाठक को  अपनी राय चुनने की सवतंत्रता देता है - कि जीवन क्या है और उसे कैसे जिया जाए  … अहम् और विरोध की ध्रुवता है या साझा किया हुआ एक कलेवा जिसमे देना और लेना दोनों ही महत्वपूर्ण हैं.  

Comments

  1. Wah! Good to read your views after a long long time :)

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  2. अब जब आपने विश्लेषण कर ही दिया है तो यह पुस्तक भी पढनी होगी.. धन्यवाद साझा करने के लिए!

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