संघर्ष!
इस जीवन में
इस संसार में
जी रही हैं कितनी ज़िन्दगियाँ
मिट रही हैं कितनी बस्तियाँ
इस एक समय में
समानांतर
कितने इतिहास रहे बन
संघर्ष! संघर्ष! संघर्ष !
हर आदमी की अपनी एक लड़ाई
कितने विलग अलग-थलग
हो गए हैं हम
की नहीं नाता रहा एक के दर्द का
दूसरे के मर्ज़ से
मैं स्त्री हूँ
वह दलित
और
तीसरा आदिवासी
हम सिर्फ पाठ्यक्रम के अंश हैं
विमर्श के असंख्य प्रश्न हैं
और
बस विस्मित आँखें
पूछती एक ही प्रश्न,
"क्या अब भी कुछ शेष है घटने को
मानवता का क़त्ल बार बार होने को। "
(आदिवासी विमर्श पढ़ते हुए)
इस संसार में
जी रही हैं कितनी ज़िन्दगियाँ
मिट रही हैं कितनी बस्तियाँ
इस एक समय में
समानांतर
कितने इतिहास रहे बन
संघर्ष! संघर्ष! संघर्ष !
हर आदमी की अपनी एक लड़ाई
कितने विलग अलग-थलग
हो गए हैं हम
की नहीं नाता रहा एक के दर्द का
दूसरे के मर्ज़ से
मैं स्त्री हूँ
वह दलित
और
तीसरा आदिवासी
हम सिर्फ पाठ्यक्रम के अंश हैं
विमर्श के असंख्य प्रश्न हैं
और
बस विस्मित आँखें
पूछती एक ही प्रश्न,
"क्या अब भी कुछ शेष है घटने को
मानवता का क़त्ल बार बार होने को। "
(आदिवासी विमर्श पढ़ते हुए)
Comments
Post a Comment