रह रह कर आम की सौंधी महक मुझे सुहाती है जून के महीने में लबालब आम से भरे ओठों की याद दिलाती है वो पापा से जिद्द कर कर आम की पेटियां मंगाना वो माँ से लड़ कर भी आम पर आम खूब खाना रोना खूब बिलखना आम का मौसम गुज़र जाने पर दिन -ब-दिन महीने - दर- महीने यूँही बिता देना इसके फिर आने तक आज जब एक पल के लिए समय ठहरा सा लग रहा है आम की सौंधी महक फिर भी मुझे अकेला नहीं छोडती बच्ची-सी है ये कहीं न कहीं से आ जाती है मेरा प्यार पाने या शायद थोड़ी बड़ी हो गयी है, जो आती है मेरा साथ निभाने.
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Showing posts from January, 2010
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"आज़ाद पिंजरे का परिंदा" क्या वो परिंदा बेजुबा था ? ... बेजुबा तो नहीं था शायद पर उसकी भाषा कुछ भले इंसानों के परे थी ... हर किसी का प्यारा वो परिंदा फिर भी पिंजरे में कैद था ... हरे , नीले गहरे रंग का वो सुनहरा परिंदा आँखों का चोर और चाल का सिपाही था ... (सिपाही , क्यूंकि सिर्फ पिंजरे में ही चलने को आज़ाद था ) उसका पहला मालिक भी खूब चालाक ... लिख दिया पिंजरे पर चाक से - "आज़ाद पिंजरा" , मानो जैसे परिंदा पढ़ लेगा तुम्हारी भाषा और खुश रह लेगा इस "आज़ाद पिंजरे " में ... पर भाईसाहब! जब आप नहीं समझते उसकी भाषा तो ये बिचारा क्या समझेगा आपकी भाषा.. खैर! "आज़ाद पिंजरे का परिंदा " इन भाईसाहब के हाथो से बिका जो इसे बेजुबान समझते थे ... और तब से अब तक ये कई बार बिक चूका है ... उनके हाथो जो इसे बेजुबान समझते थे - ये "आज़ाद पिंजरे का परिंदा" इक सफ़र पर है - तलाश है इसे एक इंसान की जो समझ सके बस इतना की - ये बेजुबान नहीं !
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शब्द साथ छोड़ देते हैं...भावनाए रिसती हैं... टप टप दो आँखों से बहती है ... एक रात ये है ... एक वो रात थी ... अँधेरा दोनों में गहरा बराबर सा था ... पर उस रात तुम्हारी आवाज़ मेरे साथ थी ... आज की रात बस उसकी गूंज शेष है ... उस रात को बारह बजे चाँद खिला था ... तुम्हारी आवाज़ सुनकर उसे पलकों से छाना था मैंने ... मेरी पूजा फिर भी पूरी कहाँ हुई थी? ... तुमने दिल खोला अपना ... मुझे राजदार बनाया... कुछ सपने बांटे ... थोडा ठिठककर .... रुक कर ... अपनी कमजोरियां बताई ... मैंने सुना तुम्हे ... तुम्हारे विचारों की अर्धांगिनी बनी ....पूजा की आखरी रस्म अभी भी बाकी थी ... आवाज़ ने तुम्हारी चादर बन ढक लिया मुझे ... रात का अँधेरा और भी गहरा गया... प्यार की रस्म पूरी हुई... तुम खुश हुए .. थोडा संतुष्ट हुए... मेरी पूजा पूरी हुई... अब तुम्हारी पलके भारी होने लगी थी ... तुम सो गए थे .. भोर का सूर्य-चन्द्र मिलन मेरी झोली में खुशियाँ भर गया था... क्या पता था इस झोली भर खुशियों से ही हर रात गुजारनी पड़ेगी....
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अक्सर में जानबूझ कर ब्यौरा लगाने छत पर जाती हूँ और देखती हूँ - दो पक्षी उत्तर को उड़ते एक पक्षी दक्षिण को... ये नर्म बहती सी धुप, और ये दोपहर की स्तभ्द्ता जिसमें चीखती सी कभी कभी द्रिल्लिंग की आवाज़ या अचानक सुनाई देती पटरी पर दौडती ट्रेन की साज़, मुझे एक सफ़र पर ले जाती है ... और उस गाँव छोड़ देती है , जिसमें ऐसे ही किसी दोपहर की स्तभ्द्ता में में खुद को तालाब किनारे बैठा देखती हूँ - बिखरे सूखे बाल, लाल कांच की चूड़ियाँ , कंधे से सिरकता हरा दुपट्टा , पैरों में मैली चांदी की पाजेब, आँखों की चमक और ओठों पर थिरकती हंसी, दोपहर की स्तभ्द्ता के बावजूद कानो में गूंजता आज़ादी का गीत जीवन में मिठास घोलने वाला दिल के पंछी से मधुर संवाद... पर अब ये - आँखों की चमक, मुक्त हंसी, आज़ादी का गीत, और मधुर संवाद, मिलते हैं सिर्फ इस सफ़र में उन चंद पलों में, जो में चुरा लेती हूँ, जब छत पर जानबूझ कर ब्यौरा लगाने आती हूँ .
Rishton ki uljhan - Rishton ki bikhran
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धागों का एक गट्टा उलझा पड़ा है पलंग के नीचे कहीं पहले छोटा था धीरे धीरे बड़ा हो गया है मोटा हो गया है पहले सुलझ सकता था शायद अब कोई गुंजाईश नहीं काटने पड़ेंगे कुछ धागे एक - एक करके. कई पत्ते बिखरे थे कल रास्ते में बचकर चलना चाहती थी पत्तों को कुचलना वो दर्द भरी चीख अच्छी नहीं लगती. पर बावजूद कोशिशों के, दस-पंद्रह तो मर ही गए , बिचारे! पहले से ही अधमरे थे.
स्पेक्स से झांकती वो जुड़वाँ आँखें...
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डरी डरी सी सहमी आँखें , कहती फिर रूकती कुछ सोचती सी आँखें । ख्यालों में डूबी , उडती या तैरती सी आखें, जागी सी हैं फिर क्यूँ लगे सोती सी आँखें। रोती रहे फिर क्यूँ दिखे हंसती सी आँखें, कुछ दिखाती बाकी सब छिपाती सी आँखें। खुद से जाने क्या बतियाती सी आँखें, झपकती , खुलती , फुदकती सी आँखें। मस्ती भरी खिलखिलाती सी आँखें, कभी कभी छलछलाती सी आँखे । प्यार से पुचकारती, तो कभी शर्माती सी आँखें। स्पेक्स के दायरे में सिमित , एक अलग संसार सी आँखें... स्पेक्स से झांकती वो जुड़वाँ आँखें...
में चाँद हूँ
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में चाँद हूँ ! रौशनी से नहाया हुआ, अँधेरी गुफा में मिटने आया तिमिर का साया। किसी ने मुझे देखा खूबसूरती के परदे में तो किसी ने माना मुझे प्रेम रस का प्याला, पर माधुर्य और सौन्दर्य से अलग, आज एक रूप मैंने बनाया । ओजस्वी चाँद तब में कहलाया... रौशनी से नहाया हुआ, अँधेरी गुफा में मिटाने आया तिमिर का साया ।