कर्ण ! अब ये मेरे लिए एक नाम या महाभारत का एक चरित्र मात्र नहीं रह गया है। आज मृत्युंजय उपन्यास पूरा हुआ। किसी भी कार्य के शुरू होने से उसके पुरे होने की भी एक कहानी होती है। लेकिन आज वह नहीं। यूँ तो विचारों के कई बुलबुले जैसे कई दिशाओं में फेल गए हैं , लेकिन मैं मात्र एक को लेकर चलूंगी। अब , आखिर, अब भटकना उचित नहीं। पांच पांडव या कर्ण - इनमे से कौन श्रेष्ठ है? ये सवाल नहीं, ये विचारों का जाल है। श्रेष्ठता को सिद्ध करना इतना आसान नहीं और वो करने वाली मैं कुछ भी नहीं - - - लेकिन - - - कर्ण श्रेष्ठ है--- और अगर है तो उसकी श्रेष्ठता का कारण क्या है - - - कर्ण का जीवन भयंकर संघर्षमय रहा और यह उपन्यास शत-प्रतिशत उसके संघर्षों को प्रकट करने में सफल रहा है। कर्ण की श्रेष्ठता के कुछ बिंदु जग-जाहिर हैं -वह महा-पराक्रमी , महावीर, अर्जुन से भी कुशल योद्धा था, उसकी ख्याति दिग्विजय कर्ण की जगह दान-वीर कर्ण के कारन हुई, लेकिन इससे भी श्रेष्ठ गुणों से वह युक्त वीर था - वह था - स्थिर बुद्धि, वचन-बद्धता। इसे ही कृष्ण ने आदर्शवादिता कहा है और इसीलिए उन्होंने कर्ण की जगह पांच पांडव को
गदल कहानी पढ़ी। रांगेय राघव की कहानी। एक ऐसे चरित्र की कहानी जिसका चरित्र चित्रण उतना ही मुश्किल है, जितना खुद का। उसे, जैसी वो है, वैसे देखने पर लगता है मानो, खुद ही को किसी और की नज़रों से देख रहे हों। इसीलिए, उसे जैसी वो है, वैसे देखना मुश्किल है , बेहद मुश्किल। 45 वर्ष की गदल , पति के मर जाने पर अपना पूरा कुनबा छोड़ , 32 साल के मौनी की घर जा बैठती है। मन में है , देवर को नीचा दिखाना है। वही देवर जिसमें इतना गुर्दा नहीं की , भाई के चले जाने के बाद भाभी को अपना ले ... जिसके नाम की रोटी तोड़ता है उसे दुनिया के सामने अपना लेने में भला क्या बुराई ... लेकिन देवर दौढी ढीठ है , डरपोक है , लोग क्या कहेंगे यही सोच सोच कर मरता रहता है। गदल औरत है लेकिन किसी की फ़िक्र नहीं करती। वही करती है जो अपने दिल में जानती है की सही है। वही करती है जो उसे करना होता है। औरत क्या चाहती है , तुम यही पूछते हो न। गर औरत तुम्हे अपना मानती है , तो चाहती है की तुम हक़ जताओ , फिर चाहे दो थप्पड़ ही मार कर क्यूँ न जताना पड़े। मौनी गुस्से में पूछता है , "मेरे रहते तू पराये मर्द के घर जा बैठेगी ?&quo
प्रभा जी का सिर्फ एक उपन्यास पढ़ा था और लगा की इनकी आवाज़ मेरी आवाज़ से मिलती है। वो भी मारवाड़ी समाज , रीति -रिवाज़ों , और महिलाओं की स्थिति के बारे में लिखतीं हैं और मैं भी संस्कृति और महिलाओं के बारे में विचार करती हूँ। इन पर पी.एच डी करने में तो मज़ा आएगा। लेकिन प्रभा खेतान जी की आत्मकथा (अन्या से अनन्या ) पढ़कर बेहद झटका लगा। एक ऐसी छवि के साथ मेरा नाम हमेशा लिए जुड़ जायेगा मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। ऐसा सुना था कि प्रभा खेतान की आत्मकथा बहुत बोल्ड है। लेकिन उनकी आत्मकथा पढ़ कर मुझे कहीं भी ये नहीं लगा कि 'कुछ ज्यादा' कहा गया है बल्कि यही लगा कि 'ज्यादा को सीमित ' करके कहा गया है। मैं जिन पर शोध करने जा रही हूँ वह एक ऐसी महिला हैं जिनका व्यक्तिगत जीवन उहापोह और लीक से हटकर रहा है। मारवाड़ी समाज की यह महिला बंगाल में न केवल उच्च शिक्षा प्राप्त करती हैं बल्कि विवाह संस्था को ठुकरा कर अपने से 18 वर्ष बड़े विवाहित और पांच बच्चों के पिता से प्रेम कर बैठती हैं। ज़िन्दगी उन्हें समर्पित कर देती हैं। चूँकि वह उस व्यक्ति पर आर्थिक रूप से निर्भर नहीं रहना चा
यह तो सच्चाई है जीवन की..
ReplyDeleteसब कुछ एक तरफ़ा है.. कहीं न कहीं स्वार्थ अपना काम धीमे से कर ही जाता है..
विडम्बना! पर सच भी...
आभार
तेरे-मेरे बीच पर आपके विचारों का इंतज़ार है...
कुछ दो तरफ़ा भी है....पर वो क्षणिक है....आपने उसे क्षणिका बना दिया :)
ReplyDeleteऔर हां.....आपका ब्लॉग बहुत ही खुबसूरत है... :)
ReplyDeleteआकर अच्छा लगा ...
Thank you Pradeep !! :)
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