पुनर्नवा - हजारी प्रसाद द्विवेदी



बात बस इतनी सी है, मैं खुद को रोक नहीं पा रही। नहीं, इतनी सी बात नहीं हो सकती। मुझे हजारी प्रसाद जी के उपन्यास पढ़ कर न जाने क्या हो जाता है। होता तो निर्मल वर्मा के उपन्यास पढ़कर भी है, लेकिन वो मन को अस्त-व्यस्त कर बुरी तरह से हिल देते हैं, अँधेरे का चरम दिखा देते हैं। लेकिन हजारी प्रसाद जी के लेखन में कोई अलौकिक शक्ति है। ऐसा लगता है जैसे सत्य सौ परदे चीर कर आँखे चौंधिया देता है। वर्मा का लिखा हुआ आत्मानुभाव सत्य-यथार्थ है, हजारी जी का अलौकिक सत्य, जिसका कोई विकल्प नहीं, कोई भी नहीं ।

एक मित्र के सहयोग से पुनर्नवा उपन्यास हाथ लग गया । , सच में ये उपन्यास , पुनर्नवा ही है। इसके बारे में कुछ भी कहना मेरे लिए संभव नहीं। हाँ इतना जरुर कहूँगी की, जिसने हजारी जी के उपन्यास नहीं पढ़े, उसने हिंदी साहित्य में कुछ नहीं पढ़ा, क्यूंकि इनके उपन्यास हिन्दू संस्कृति का निचोड़ तत्व हैं। और हजारी जी सिर्फ संस्कृति के ही मर्मग्य नहीं बल्कि उत्तम कथाकार भी हैं। उनके उपन्यास में जितनी श्रेष्ठ कोटि का भाव तत्व है, उतने ही श्रेष्ठ कोटि का कलात्मक गुण है। कथा को वे जिस क्रम में पेश करते हैं वह  पूर्ण रहस्यात्मकता, उत्सुकता, कला-आनंद बढाने वाला है। उनकी चरित्र रचना इतनी विविध- प्राक्रतिक और अपने में पूर्ण है की ये एहसास ही नहीं होता की हम कथा पढ़ रहे हैं, बल्कि ऐसा ही लगता है की, जिन्हें हम जानते आये हैं उन्ही पात्रो के बारे में पढ़ रहे हैं। सचमुच ये एक बड़ी  उपलब्धि है।

हजारी जी की सबसे श्रेष्ठ बात है की वे उनके मुख्य पात्रों को अच्छा या -बुरा नहीं बताते , उन्हें वे जैसे हैं, अपनी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ हमारे सामने रख देते हैं। उनके चरित्र वास्तव में "ग्रे" हैं, ऐसे ही जैसे उन्हें होना चाहिए, अपने अस्तित्व को टटोलते हुए, द्वंद्व में पड़े, कुंठा ग्रस्त, आत्म-ग्लानि और आत्म-भर्त्सना के शिकार परन्तु हमेशा कुछ ऊँचा, पवित्र, श्रेष्ठ, ईश्वरीय भाव की खोज में लगे हुए हैं। उनके चरित्र आध्यात्मिक यात्रा में भटके हुए राहगीर हैं जो अपने को सही जगह पर देखना चाहते हैं और  इस संसार में अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रेरित हैं।

इसीलिए उनके उपन्यास हर भटके राहगीर के लिए प्रकाश-स्तम्भ है, एक प्रेरणा का स्त्रोत है। कभी कभी ये इतने रहस्यमयी से लगते हैं की मानो इस संसार में ये उपन्यास इश्वर की ही प्रेरणा से उसी व्यक्ति के हाथ में लगना हो, जिसे इश्वर कुछ इंगित करना चाहते हों। कम से कम, मैंने इन्हें एक क्षण में ऐसा ही पाया है। सब कुछ एक गुत्थी जैसा है, जो किसी एक क्षण अचानक सुलझ जाती है, फिर दुसरे ही क्षण उलझी सी लगती है । जैसे सच्चे भक्त को, इस संसार में पत्थर की मूर्ति में भी भगवान् दर्शन देकर फिर अद्रश्य हो गए हो। कहीं न  कहीं कोई रहस्य सम्पूर्ण जगत में स्पंदित है, जो ऐसे शब्दों के माध्यम से कुछ क्षण के लिए प्रकट हो जाता है और फिर लुप्त । काश की ऐसी ज्योति आत्मा में चिर - प्रज्वलित  रखने का कोई उपाय  मिल पता।

Comments

  1. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के रचना संसार का अवगाहन पाठक के परिष्कृत रूचि का भी संकेत देता है!

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