गोदान, पुनर्नवा, और स्त्री
बहुत समय हुआ जब मन में पहली बार ये सवाल उपजा था की- मुझे क्या करना है, जॉब या कुछ नहीं। मैंने कुछ नहीं को चुना - फिर भी बहुत कुछ कर लिया - एम् ऐ हिंदी में, और दादाजी की सेवा, घर के काम भी सिख लिए, और स्वाध्याय का आनंद भी पा लिया। फिर मन में एक सवाल खड़ा हुआ है - अबकी बार शादी का , पति , परिवार, और भविष्य का है। लेकिन जवाब इस बार भी उन्ही विचारों के इर्द-गिर्द मंडरा रहा है। जॉब नहीं करना - ऐसा तो बिलकुल भी नहीं जिसमे दम घूंटे , जीने के मायने जाते रहे, और इंसान एक पहिया बनकर रह जाए। जब गाडी ही उसने बनायी है तो वो मात्र पहिया क्यूँ बना रहे? और फिर ये भी तो उसके हाथ में है की उसे पैदल चलना है या गाडी चाहिए। मुझे इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता . सिर्फ ये जरुरी है की रास्ता इतना सुहावना हो की रास्ता ही मंजिल लगने लगे, मंजिल और रास्ते का फर्क मिट जाए।
लेकिन बात कुछ और है। बात है स्त्री की, स्त्री-पुरुष कर्तव्य की, विवाह की। जबसे प्रेमचंद का गोदान पढ़ा है, मन में मिस्टर मेहता के स्त्री समानता के सम्बन्ध में कहे विचार घूमते रहते हैं। स्त्री और पुरुष सामान हो ही नहीं सकते। स्त्री का दर्जा पुरुष से कहीं ऊँचा है। स्त्री पुनर्नवा है, बासी को ताजा करने वाली। वो पुरुष की प्रेरणा है। मुझे दुःख होता है देख कर की, स्त्री अपने स्व-भाव को भूल गयी है। ममता, वात्सल्य, त्याग, तितिक्षा, सर्वस्व लुटा देने की शक्ति स्त्री खोती जा रही है। उसमे अहम् और महत्वकांक्षा घर करती जा रही है। और ये सब क्या पुरुषों की बराबरी करने का नतीजा नहीं है? मैंने ऐसे भी परिवार और पुरुष देखे हैं, जिनकी विवाह के सम्बन्ध में पहली ही शर्त होती है- कामकाजी स्त्री, अच्छी नौकरी वाली। हंसी आती है। इतनी की क्या बताऊँ। तरस भी आता है। सोचती हूँ, यही परिवार , यही पुरुष तब क्या कहेंगे जब उनकी बहु, उसकी पत्नी - काम के चक्कर में घर ढंग से न चला पाए बूढ़े माँ-बाप की सेवा न कर पाए। पैसों से ही क्या एक सुखी-संस्कारी घर बन जायेगा? मैं किसी का दोष नहीं देख रही सिर्फ सोच रही हूँ की क्या हम जीवन का मर्म और जीने कला सिख गए हैं, या अभी बहुत कुछ ऐसा है जिसका एहसास होना बाकी है?
पुनर्नवा में द्विवेदी जी लिखते हैं, जो अपने स्व-भाव को नहीं पहचान पता वह भटक जाता है। स्त्री ऐसे ही भटक गयी है, सामूहिक रूप में भी और व्यक्तिक रूप में भी। अपनी बात करूँ तो कहूँगी, संसार में यही मुख्य बात भी है और सबसे मुश्किल भी - अपने स्व-भाव को पहचानना और उसी के अनुरूप जीवन में अपने उद्देश्य की पूर्ति करना।
" ...'स्व-भाव' अपने आपको प्रयत्नपूर्वक पहचानने में समझ में आता है। अपने वास्तविक भाव को जानना कठिन साधना का विषय है। ... जो भाव उन्हें दिया नहीं जा सकता वह व्यर्थ है, निष्फल है, बंध्य है। वह अपना भाव भी नहीं हो सकता। उसे आगंतुक विकार ही समझो। ..."
Well said! Sublime!
ReplyDeleteThank you :)
ReplyDeleteALL u said has a point........but every coin has two side.......becoz I have met many women in my life who r not given respect n even toture by their husband......so i think it is necessary for todays women to be self dependent.
ReplyDeleteIt is necessary...but I am against to make women work compulsory. Let her decide what to do in her life, don't tell her - do this , or don't speak, or don't go there... let her just be...free... as the men are.
ReplyDeleteShow some respect, that's all what I mean.