निज भाषा का प्रेम
मन में कई विचार दौड़ रहे हैं ... पढ़ रही हूँ इंग्लिश पर विचार हिंदी भाषा को लेकर हैं.
क्या हिंदी केवल भाषा है? यही सवाल में इंग्लिश के लिए भी पूछ सकती थी , पर जवाब में तभी दे पाती जब इंग्लिश बोलने वाले देश में रहती. भाषा हमारी संस्कृति से सीधा सम्बन्ध रखती है. किसी भी देश की आत्मा को समझना हो तो उस देश के साहित्य को पढना चाहिए. हिंदी हमारी केवल भाषा नहीं है. कई देशो में हो सकता है की उस देश की भाषा , भाषा से अधिक कोई महत्व न रखती हो , पर हमारे लिए निश्चित रूप से हिंदी का अनूठा स्थान है. मुझे कभी कभी ऐसा लगता है की , ये हमारी गलत धारणा है की हम चीजों को चुनते हैं , सही मायने में चीज़े हमें चुनती है. कहा जाता है , भगवान् जब तक न बुलाये , हम उस मंदिर जा ही नहीं पाते. ठीक उसी तरह , हम चीजों को जितना प्यार देंगे वो हमारी बनकर रहेंगे. हिंदी को हमने बहुत प्यार दिया है , इसे राष्ट्र भाषा बनाने में क्या कसार नहीं छोड़ी , ओर आज तक भी अंग्रेजी के प्रकोप से इसे बचाने के लिए हम इसे अपने गले से लगाए हुए हैं. ये हमारा प्यार है हमारी भाषा के प्रति. ओर देखिये ये हिंदी हमारा प्यार हमें कैसे लौटाती है. किसी से आप दूसरी भाषा में बात करे ओर फिर उससे अच्छी हिंदी में बात करे , आप खुद महसूस करेंगे की हिंदी भाषा से प्रेम की अनोखी धारा बहती है. जाने क्या जादू है इसमें? पर इसके सही प्रयोग करने पर हमे इसमें से संस्कृत जैसा सम्मान ओर उर्दू जैसे मिठास का अनुभव होता है.
हिंदी के पश्चात अगर कानो को कुछ लुभाता है तो वो है क्षेत्रीय भाषाए . पंजाबी का खुलापन , लड़कपन देखिये , बंगाली का माधुर्य , ब्रज भाषा की तुलना किस्से की जा सकती है . बिहारी बोलना तो लालू की वजह से नया फैशन बन गया था. हाँ मराठी थोड़ी कड़क भाषा लगती है. राजस्थानी जब प्यार से - पधारो महरे देश कहते हैं तो फोरेनेर भी भाव विहल हो जाते हैं. इस देश की एक एक बोली में भी जादो है. लिटररी फेस्ट के दौरान शोभा दे जी ने सही कहा था की - भारत की गली गली में जादू है , हमें जादू - ओर परियो के किस्सों की क्या जरुरत है?
एक बात इन दिनों मैंने ब्लॉग की दुनिया में गौर की - वह यह की आप इंग्लिश के ब्लॉग पर जाये , किसी की प्रशंसा करे , उसके भावो को सराहे , पर बदले में सिर्फ एक - थैंक्स के कुछ नहीं मिलेगा. ओर यही आप किसी हिंदी ब्लॉगर के साथ करे तो बदले में - धन्यवाद् के साथ - प्रेम मिलेगा, स्नेह मिलेगा, आशीष मिलेगा . हिंदी दिल से दिल को जोड़ने का कार्य करती है. एक हिन्दुस्तानी जब हिंदी में बोलता है तो वह निश्चित ही अपने दिल से बोलता है . हिंदी भाषा से जितना प्रेम आप लुटा सकते हैं , मुझे नहीं लगता अंग्रेजी उसका एक - चौथाई प्रेम भी दे सकती ; कम से कम अन्य भाशिये देश में नहीं दे सकती , उनके देश में हालांकि वह ही भाषा सभी भावो को प्रकट करने का माध्यम है - क्यूंकि वो उनकी निज भाषा है , जैसे हिंदी हमारी है.
"निज" शब्द से भारतेंदु जी की पंक्तियाँ याद आ गयी -
निज भाषा उन्नति अहै , सब उन्नति काउ मूल
बिन निज भाषा ज्ञान के , मिटे न हिय काउ सूल .
क्या हिंदी केवल भाषा है? यही सवाल में इंग्लिश के लिए भी पूछ सकती थी , पर जवाब में तभी दे पाती जब इंग्लिश बोलने वाले देश में रहती. भाषा हमारी संस्कृति से सीधा सम्बन्ध रखती है. किसी भी देश की आत्मा को समझना हो तो उस देश के साहित्य को पढना चाहिए. हिंदी हमारी केवल भाषा नहीं है. कई देशो में हो सकता है की उस देश की भाषा , भाषा से अधिक कोई महत्व न रखती हो , पर हमारे लिए निश्चित रूप से हिंदी का अनूठा स्थान है. मुझे कभी कभी ऐसा लगता है की , ये हमारी गलत धारणा है की हम चीजों को चुनते हैं , सही मायने में चीज़े हमें चुनती है. कहा जाता है , भगवान् जब तक न बुलाये , हम उस मंदिर जा ही नहीं पाते. ठीक उसी तरह , हम चीजों को जितना प्यार देंगे वो हमारी बनकर रहेंगे. हिंदी को हमने बहुत प्यार दिया है , इसे राष्ट्र भाषा बनाने में क्या कसार नहीं छोड़ी , ओर आज तक भी अंग्रेजी के प्रकोप से इसे बचाने के लिए हम इसे अपने गले से लगाए हुए हैं. ये हमारा प्यार है हमारी भाषा के प्रति. ओर देखिये ये हिंदी हमारा प्यार हमें कैसे लौटाती है. किसी से आप दूसरी भाषा में बात करे ओर फिर उससे अच्छी हिंदी में बात करे , आप खुद महसूस करेंगे की हिंदी भाषा से प्रेम की अनोखी धारा बहती है. जाने क्या जादू है इसमें? पर इसके सही प्रयोग करने पर हमे इसमें से संस्कृत जैसा सम्मान ओर उर्दू जैसे मिठास का अनुभव होता है.
हिंदी के पश्चात अगर कानो को कुछ लुभाता है तो वो है क्षेत्रीय भाषाए . पंजाबी का खुलापन , लड़कपन देखिये , बंगाली का माधुर्य , ब्रज भाषा की तुलना किस्से की जा सकती है . बिहारी बोलना तो लालू की वजह से नया फैशन बन गया था. हाँ मराठी थोड़ी कड़क भाषा लगती है. राजस्थानी जब प्यार से - पधारो महरे देश कहते हैं तो फोरेनेर भी भाव विहल हो जाते हैं. इस देश की एक एक बोली में भी जादो है. लिटररी फेस्ट के दौरान शोभा दे जी ने सही कहा था की - भारत की गली गली में जादू है , हमें जादू - ओर परियो के किस्सों की क्या जरुरत है?
एक बात इन दिनों मैंने ब्लॉग की दुनिया में गौर की - वह यह की आप इंग्लिश के ब्लॉग पर जाये , किसी की प्रशंसा करे , उसके भावो को सराहे , पर बदले में सिर्फ एक - थैंक्स के कुछ नहीं मिलेगा. ओर यही आप किसी हिंदी ब्लॉगर के साथ करे तो बदले में - धन्यवाद् के साथ - प्रेम मिलेगा, स्नेह मिलेगा, आशीष मिलेगा . हिंदी दिल से दिल को जोड़ने का कार्य करती है. एक हिन्दुस्तानी जब हिंदी में बोलता है तो वह निश्चित ही अपने दिल से बोलता है . हिंदी भाषा से जितना प्रेम आप लुटा सकते हैं , मुझे नहीं लगता अंग्रेजी उसका एक - चौथाई प्रेम भी दे सकती ; कम से कम अन्य भाशिये देश में नहीं दे सकती , उनके देश में हालांकि वह ही भाषा सभी भावो को प्रकट करने का माध्यम है - क्यूंकि वो उनकी निज भाषा है , जैसे हिंदी हमारी है.
"निज" शब्द से भारतेंदु जी की पंक्तियाँ याद आ गयी -
निज भाषा उन्नति अहै , सब उन्नति काउ मूल
बिन निज भाषा ज्ञान के , मिटे न हिय काउ सूल .
वाह ! आज तो .....आपने हिंदी भाषा पर पूरा प्यार लुटा दिया ....आपकी एक एक बात सटीक है .....जो रस हमें अपनी भाषा में मिलता है वो और किसी भाषा में नहीं प्राप्त होता .
ReplyDeleteDevesh ji... !!! Shuru shuru mein mujhey english ka craze chhadha tha per ab ehsaas hota hai Hindi mein kuch to jaadu hai :)
ReplyDeletebahut achha likha mehta ji aapne..sahi me hindi toh hindi hai!Gd bless u!
ReplyDeletethank you swati ji... !!! :)
ReplyDeleteक्या खूबसूरत लफ़्ज़ों में हिंदी के महत्व को वर्णित किया गया है!
ReplyDeleteधन्यवाद लिली जी :P
ReplyDeleteअपनी भाषा के बिना दूसरी भाषाओं का ज्ञान अधूरा है। इस कविता के भीतर आगे जाकर शायद कुछ ऐसा ही संदेश मिलता है।
ReplyDeleteमुझे एक किस्सा याद आ रहा है। किसी ने बताया था कि इस बारे में रसूल हमजातोव ने बहुत बढ़िया लिखा है। एक बार के व्यक्ति एक अप्रवासी व्यक्ति की माँ से मिलता है। वो उसको बताता है कि उसका बेटा विदेश बहुत अच्छा जीवन बसर कर रहा है। वो बहुत अच्छी तरह वहाँ की भाषा बोलना सीख गया, हाँ लेकिन अपनी भाषा बोलने में उसको शर्म आने लगी है। इतना सुनते ही वो महिला अपने कंधे से चुनरी को नीचे फेंक देती है। वहाँ चुनरी फेंक देना, मतलब किसी जान से प्यारे का मन जाना था। उसने अपने बेटे को मरा हुआ मान लिया, क्योंकि उसके पुत्र ने उस भाषा को त्याग दिया, जो उसकी माँ ने सिखाई थी।
कुलवंत जी - सच ये किस्सा माँ के साहस के साथ , मात्रभूमि ओर मात्रभाषा के स्वाभिमान ओर प्रेम पर प्रकाश डालता है. कौन माँ ये बर्दास्त कर पाएगी की उसका बेटा अपनी ही माँ के सिखाये उसूलो और संस्कारों को भूल जाए. आपके इतने बढ़िया कोमेंट के लिए धन्यवाद.
ReplyDeleteमाँ का स्थान स्वभावतः ही सर्वोच्च होता है!
ReplyDeleteहोना भी चाहिए!
और माँ जैसे भी जो भी कहे वो सर्वोपरी तो होगा ही!
आप से पुर्णतः सहमत.
कुंवर जी
हिन्दी जिंदाबाद
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