गुनाहों का देवता
बड़ा अद्भुत है ये! एक माँ अच्छे से जानती है बच्चे को कब क्या खुराक देनी है वैसे ही भगवान् जानते होंगे कि मन को कब किस खुराक कि जरुरत होती है. इस महीने दो अद्भुत पुस्तकें पढ़ी. एक, बाणभट्ट कि आत्मकथा, जिसने ये बताया कि , स्वयं को निःशेष भाव से दे देना ही वशीकरण है. दूसरी, गुनाहों का देवता, जिसने ये बताया को स्वयं को निःशेष भाव से कैसे दिया जाता है. मन में कब से इच्छा थी धर्मवीर भारती कि , गुनाहों का देवता पढने कि, पर पढने के बाद मन अजीब सा हो गया है. मैं यह तय नहीं कर पा रही हूँ कि ऐसा क्या था इसमें जिसने मुझे छू लिया हो या मुझसे कुछ मेरी ही भूली कहानी कह दी हो. हाँ! इसे पढ़ते समय कुछ ऐसा लगा - जब स्वयं का ही जीवन एक प्रेत कि गुफा जैसा हो, मन ने कभी देवता कि प्रतिमा खंडित कर मंदिर को अपवित्र कर दिया हो,और गुनाहों का देवता जब खुद में कहीं ही बसा हो तो उसे अक्षरों में पढने कि क्या जरुरत. खैर! उपन्यास पड़ने का बाद अब मुझे लेश मात्र भी आश्चर्य नहीं कि क्यूँ यह इतना प्रसिद्द है.
" ये आज फिजा खामोश है क्यूँ, हर ज़र्र को आखिर होश है क्यूँ?
या तुम ही किसी के हो न सके, या कोई तुम्हारा हो न सका."
ये कोई और समय होता तो मन कहता - यही तुम्हारा भी रास्ता है. तुम्हे भी खुद को मिटा देना है. जो रौशनी तुम्हे मिली है उसे लुटा देना है. पर कोई रौशनी मिली ही कहाँ है? और मन पहले ही संभल भी गया है, अब वह कहता है कि वो लेखक का सच है या किरदारों का पर तुम्हारा नहीं. तुम्हे अपना सच स्वयं ढूँढना है. अभी कुछ ही समय में तुम्हे भी घर से विदा लेनी है. अपनी आँखे वक़्त पर खोल लो कहीं ऐसा न हो कोई सपना धीरे धीरे टूट रहा हो और तुम उसके बिखरने से पहले अपना होश भी न संभाल पाओ. मुझे गेसू कि याद हमेशा आती रहेगी.
उपन्यास में मेरा सबसे प्रिय प्रसंग शायद वह है जब बर्टी अपने तोते को मार देता है. तीन गोलियां चलती हैं और तीसरी गोली से आखिर तोता मर ही जाता है. दरअसल यह सांकेतिक प्रसंग है. तीन गोलियां , सुधा, बिनती और प्रमीला है, और तोता चंदर. बर्टी इसके बाद दर्शन कि गूढ़ बातें करने लगता है पर वह जो उदाहरण देता है उससे इस संकेत का प्रमाण मिल जाता है - " हर एक कि ज़िन्दगी का एक लक्ष्य होता है. और वह लक्ष्य होता है सत्य को , चरम सत्य को जान लेना. वह सत्य जान लेने के बाद आदमी अगर जिंदा रहता है तो उसकी यह असीम बेहयाई है. ... मसलन तुम अगर किसी औरत के पास जा रहे हो या किसी औरत कि पास से आ रहे हो और संभव है उसने तुम्हारी आत्मा कि हत्या कर डाली हो..."
... आत्मा कि हत्या... इससे सुधा का एक और उदबोधन याद आता है , " चंदर, मैं तुम्हारी आत्मा थी. तुम मेरे शरीर थे. पता नहीं हम लोग कैसे अलग हो गए. तुम्हारे बिना मैं सूक्ष्म आत्मा रह गयी. शरीर कि प्यास, रंगीनियाँ मेरे लिए अपरिचित हो गयी...और मेरे बिना तुम केवल शरीर रह गए. शरीर में डूब गए... पाप का जितना हिस्सा तुम्हारा उतना ही मेरा है.. पाप कि वैतरणी के इस किनारे जब तक तुम तडपुंगी,तभी तक मैं भी तडपुंगी ..."
देवता तो तुम रहे पर कुछ गुनाह तुमसे हो गए. पर भक्त को देवता का हर गुनाह क्षम्य होता है. वरना कौन राम को पूजता और कौन कृष्ण को. आज मुझे जाने क्यूँ वेन गोघ भी याद आ रहे हैं. अंतर्द्वंद्व भले ही जीवन में कितने भी हो और भिन्न हों सभी कि राहें अंत में एक सत्य के प्रकाश स्तम्भ तक जाती हैं. पता नहीं क्यूँ, उपन्यास खत्म होने पर भी इसके अधूरे होने का आभास सा लग रहा है , लग रहा है जैसे एक कहानी कहीं कोई अभी भी अधूरी है...
"गुनाहों का देवता" के बारे में काफी सुना है.. अब पढना होगा.. :)
ReplyDeletejarur se padhiyega :)
ReplyDelete... aur apne vichaar jarur se bataiyega!!
ReplyDeletenice one and really touching ..
ReplyDeletethank you :)
ReplyDeleteयह पुस्तक काफी समय से मेरे पास थी पर आज पढ़ पाया. पढ़ने के बाद से मन कुछ उदेव्लित सा हो उठा है. यद्यपि मेरे जीवन में ऐसा कुछ भी घटित नहीं हुआ है, फिर भी मुझे ये मात्र कहानी नहीं लगती. अभी तक सभी पात्र मेरे मन-मस्तिष्क में घूम रहे हैं. कहानी के अंत से बहुत उदास हो गया हूँ. साहित्य का ऐसा मोहपाश मैंने कहीं नहीं देखा.
ReplyDeleteसच में पुस्तक पढकर में कुछ भी कह पाने या समझ पाने की स्थिति में नहीं हूँ. एक मात्र मित्र था जिसे अपनी मन की बात बता पता पर दुर्भाग्य से उसे भी फोन नहीं मिल पाया तो नेट में पुस्तक से सम्बंधित समीक्षा ढूढते-ढूढते ये लेख मिल गया तो लगा बिलकुल ऐसा ही तो मुझे भी महसूस हो रहा है अभी. इसलिए ये शायद इस लेख में टिपण्णी ना होकर मेरे अंतर की कहानी है जिसका एहसास मुझे पुस्तक पढ़ने के बाद हुआ.
शब्द खो से रहे हैं...चंदर, बिनती, गेसू, पम्मी और....सुधा (क्या जीवन प्रतिमुर्तित किया उसने !!). सच में अब लगा की धर्मवीर भारती के लिए..."इस उपन्यास का लिखना वैसा ही रहा है जैसा पीड़ा के क्षणों में पूरी आस्था से प्रार्थना करना; और इस समय भी मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैंने वह प्रार्थना दोहरा रहा हूँ, बस..." अब में भी शायद पहले जैसा ना रहूँ|
aaj se 10 saal baad aapko lagega ki ye kitaab jaan boojh kar emotional blackmail karne ke liye likhi gayi thi...
ReplyDeletekori umar mein ye kitaab padhne ka asar bahut gazab hota hai lekin premchand ke baad sabhi isi ko padhte hain... aur mahinon tak rote hain... main bhi hoon is line mein...
kaafi achcha blogging karti hain... karti rahiye regular...