निर्मल वर्मा - और आत्मालाप

मैंने सोचा नहीं था इतना जल्दी निर्मल वर्मा को पढ़ पाऊँगी, पर हार्डी के बाद उन्हें पढना अच्छा लग रहा है , ऐसा जैसे, 'दुःख' के एक चेप्टर से दूसरे चेप्टर पर आ गयी हूँ... 

बिलकुल अंदेशा न था, पर ऐसा ही हुआ, इस उपन्यास ने मुझे (मेरे अंदर बहुत कुछ जिसे मैंने एकत्रित कर लिया था उसे) decenter कर दिया है. जैसे चार पाए पर खड़े दो लड़खडाते पैरों के निचे से पाए खीच लिए हो...

पूरी रात सो नहीं पायी (उपर से तेज़ थर्राती बारिश की आवाज़..).. पता नहीं रात में मैंने कितनी बार तड़पते हुए, गुस्से में बिलबिलाते हुए खुद से कहा - this text is cruel. ये मुझे अंदर ही अंदर खाते जा रहा था... the narrative is so haunting... जैसे कांच पर ढूंढ़ जम गयी हो ओर साधारण चीज़ भी असाधारण हो गयी हो... just like a blur image...देख लेने पर भी कुछ देखा न हो, बहुत कुछ छुट गया हो ऐसा एहसास - एक अनाम अधूरापन जो खुद की तहों को खोलने-टटोलने की कोशिश करता है - ओर जिसमे बहु पीड़ा होती है ...

वर्मा का यह उपन्यास, सच कहूँ तो, पीड़ा-दायक है, it dissects, चीर-फाड़  करता है . आप चिल्लाते रहेंगे की कोई फोड़ा नहीं है - पर यह जिद्दी है, ढूंढ़ निकालेगा, ओर बिना आपसे पूछे चीर-फाड़ करने लगेगा. 

इस उपन्यास का शीर्षक बहुत disurbing  है - 'एक चीथड़ा सुख' ....
'सुख' भी यहाँ 'दुःख' की चर्चा के बिना अधुरा है. बल्कि मानो 'सुख' दुःख का ही सूचक हो. तीव्र प्यास में दो बूँद पानी की पिने पर-   पीते समय प्यास का एहसास ओर दुगुना हो जाता है. ऐसे ही सुख के दो क्षणों में भी दुःख की छाया आस-पास से घेर लेती है... 
'चीथड़ा' शब्द ही अपने आप में नकारात्मक है... और केवल  नकारात्मक नहीं बल्कि यह हिंसा का भाव भी लिए हुए है. जैसे किसी खूबसूरत रेशमी दुपट्टे को किसी ने बेदर्दी से फाड़ कर हाथ में  एक चीथड़ा पकड़ा दिया हो - भीख में डे दिया हो - एक एहसान की तरह. 
तब क्या वर्मा की भी हार्डी की ही तरह फिलोसोफी है की - 'Happiness is just an interlude in the general drama pf pain'. 

शायद हाँ- शायद नहीं. 

(to be continued...)

Comments

  1. ये उन चंद किताबों में से है जिसे मैं एक ही बार में पूरा नहीं पढ़ पाया. स्वीकार करता हूँ कि पढ़ने की हिम्मत ही नहीं हुई. अवसाद कि चरम सीमा पर पहुँचने के बाद भला क्या पढूं?

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