एक भीगा हुआ-सा स्वप्न

कल रात की तो नहीं ... शायद कई दिन पहले की बात है।  फिर से एक ऐसा सपना देखा मैंने, मानो कोई रहस्यमयी कहानी पढ़ी हो।  एक हरा-भरा मैदान जिस पर आगे चलते हुए एक झरना पड़ता है।  बहुत दिव्य, मनमोहक झरना।  झरने के पीछे एक गुफा जिसमे एक दिव्य गन्धर्व रुपी जोड़ा अभिसार कर रहा है।  उनकी क्रीड़ाएँ मन में गुदगुदी करने वाली थीं।  वे हँसते दौड़ते छेड़ते खेलते रंग उड़ाते कभी पानी में नहाते  ... ऐसी दिव्यता थी उनकी हर क्रिया में मानो वो ज़मी स्वर्ग का कोई टुकड़ा हो।  मैं अभिभूत होती हुई आगे बढ़ती जा रही थी की अचानक ठिठक गयी उन्होंने मुझे एक पल आश्चर्य से देखा , वह स्त्री दूजे ही पल निर्जन वन में गायब हो गयी।  मैं देखती रह गयी।  मैं भी भागने को हुई किन्तु उस  ... उस मनुष्य रुपी देवता ने मेरा हाथ पकड़ लिया।  वह न जाने कब तक मुझे देखता ही रहा - कई भाव उसके चेहरे पर आये और गए , मैं कुछ समझ नहीं पायी, जैसे किसी ने मुझे वश में कर लिया हो।  धीरे-धीरे स्वप्न के उस धुंधले प्रकाश में मैंने देखा , वह मेरे पैरों में झुका था  ... स्वप्न में मैंने बहुत देर बाद जाना , मैं पत्थर की मूर्ति हूँ , भीतर बहुत-से प्रश्न उबल रहे हैं ,बहुत कुछ महसूस कर रही हूँ , पर सब कुछ वहीँ ठहर गया था।  

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