"आज़ाद पिंजरे का परिंदा"


क्या वो परिंदा बेजुबा था ? ... बेजुबा तो नहीं था शायद पर उसकी भाषा कुछ भले  इंसानों के परे थी  ... हर किसी का प्यारा वो परिंदा फिर भी पिंजरे में कैद था ... हरे , नीले गहरे रंग का वो सुनहरा परिंदा आँखों का चोर और चाल का सिपाही था ... (सिपाही , क्यूंकि सिर्फ पिंजरे में ही चलने को आज़ाद था )


उसका पहला मालिक भी खूब चालाक  ... लिख दिया पिंजरे पर चाक से - "आज़ाद पिंजरा" , मानो जैसे परिंदा पढ़ लेगा तुम्हारी भाषा और खुश रह लेगा इस "आज़ाद पिंजरे " में ... पर भाईसाहब! जब आप नहीं समझते उसकी भाषा तो ये बिचारा क्या समझेगा आपकी भाषा.. 


खैर! "आज़ाद पिंजरे  का परिंदा " इन भाईसाहब के हाथो से बिका जो इसे बेजुबान समझते थे ... और तब से अब तक ये कई बार बिक चूका है ... उनके हाथो जो इसे बेजुबान समझते थे -   ये "आज़ाद पिंजरे का परिंदा" इक सफ़र पर है - तलाश है इसे एक इंसान की जो समझ सके बस इतना की - ये बेजुबान नहीं ! 

Comments

  1. Babes what a thought .... aajkal ek insaan dusre insaan ki bhasha nahin samjhta hai , infact I would se insaan khud ki insaaniyat ki bhasha bhulta jaa raha hai & u expecting ki woh bird ki language samjhega????

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  2. bahut badhiya ............kabhi -kabhi mai sochta hu .....pinjre mein kaid parinda ...insaan ko dekh kar yahi kheta hoga ...''meri azaadi se kinta jalta hai insaan kunki hum panchiyo ki duniya mein koi shrad nahi koi dewaar nahi koi batwaara nahi ......''

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  3. @charisma - U pointed it rightly ... !!!
    @Vicharo ka darpan - Panchiyon ki soch ... bahut sahi baat kahi aapne...

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  4. कैसे समझी परिंदे की ज़ुबान...

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  5. kabhi kabhi zindagi bahut kuch sikha deti hai... ye bhi usi ne sikhaya :)

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