अक्सर में जानबूझ कर ब्यौरा लगाने छत पर जाती हूँ
और देखती हूँ -
दो पक्षी उत्तर को उड़ते
एक पक्षी दक्षिण को...
ये नर्म बहती सी धुप,
और ये दोपहर की स्तभ्द्ता
जिसमें चीखती सी कभी कभी
द्रिल्लिंग की आवाज़
या अचानक सुनाई देती
पटरी पर दौडती ट्रेन की साज़,
मुझे एक सफ़र पर ले जाती है ...
और उस गाँव छोड़ देती है ,
जिसमें ऐसे ही किसी दोपहर की स्तभ्द्ता में
में खुद को तालाब किनारे बैठा देखती हूँ -
बिखरे सूखे बाल,
लाल कांच की चूड़ियाँ ,
कंधे से सिरकता हरा दुपट्टा ,
पैरों में मैली चांदी की पाजेब,
आँखों की चमक और ओठों पर थिरकती हंसी,
दोपहर की स्तभ्द्ता के बावजूद
कानो में गूंजता आज़ादी का गीत
जीवन में मिठास घोलने वाला
दिल के पंछी से मधुर संवाद...
पर अब ये -
आँखों की चमक,
मुक्त हंसी,
आज़ादी का गीत,
और मधुर संवाद,
मिलते हैं सिर्फ इस सफ़र में
उन चंद पलों में,
जो में चुरा लेती हूँ,
जब छत पर जानबूझ कर ब्यौरा लगाने आती हूँ .
कविता सचमुच बहुत अच्छी बन पड़ी है, पढ़ते समय अतीत के कुछ दृश्य लौट्ते दिखते हैं. NOSTALGIA में लौटाने के लिये धन्यवाद.
ReplyDeletebahut khoob .....likha hai aapne ......kalpna ki duniya hi alag hoti hai
ReplyDelete@ Iyer ji - Thank you :)
ReplyDelete@ Vicharo ka darpan - Sach kaha aapne kalpana ki duniya bahut nirali hoti hai :)
are gajab....aaj to is chhat par aakar mujhe bhi bahut acchha laga....kyaa baat kah daali hai is chidiya ne.....are main to bhoot hoon....ye main kahaan aa gayaa....bhaago.....!!
ReplyDeleteBhooton ka is nagri mein Swagat hai ji! :)
ReplyDeleteSach mujhey insano se adhik toh bhoot hi pasand hai.
waah madam...waah waah...kya kahne
ReplyDeleteAre Pankaj aaj aapka comment kaise? Lagta hai mere blog ke bhagya khul gaye :P
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