सुनो ज़रा करीब आओ अपनी आँखें मुझे दिखाओ इन साधारण सी दिखने वाली आँखों से तुम्हें ये दुनिया जादूभरी कैसे दिखती है, बताओ हां! तुम्हारे सीने पर हाथ रख तुम्हारी धड़कनों को महस...
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Showing posts from 2018
बाबा
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बाबा न जाने कितनी तरह की मशीनों से घिरे हुए थे। कई नलियां उनके शरीर में घुसी हुईं थीं - लगता था मानो आज वे पतली-छोटी नालियां इंसान से बड़ी हो गयी हैं. ...वह बाहर खड़ा है। अस्पताल के इस भारी वातावरण में उसे नींद नहीं आती। उसकी बड़ी माँ बाहर हाल में फर्श पर लेटी है और नाना जिसे वह बाबा कहता है अंदर रूम में लेटे हैं। वह बाहर कॉरिडोर में घूमता है पर यहां बहुत भीड़ है हर मरीज के रिश्तेदार जहाँ-तहाँ पसरे हुए हैं। समय और मौसम से बेखबर, सफ़ेद ट्यूबलाइट की धुंधली रौशनी में हर कोई एक-जैसा ही दिख रहा है. - सबके चेहरे पर एक ही भाव है पीड़ा का। कभी - कभी वह सोचने लगता है कि ज्यादा पीड़ा किसे हो रही है मरीजों को , जो अंदर कई नालियों और मशीनों के चंगुल में फंसे हैं या इन मरीजों के रिश्तेदारों को। रिश्तेदारों के चेहरे की पीड़ा देखना जब असहनीय हो जाता है तब वह बाबा के पास चला जाता है। वे अक्सर आँख बंद करके शांत लेटे होते हैं। उनका चेहरा हालांकि सूख गया था पर फिर भी उस सूखे कमल-समान चेहरे पर एक तेज़ दिखाई पड़ता था बिलकुल वैसा जैसा उसने भगवानों की तस्वीरों में उनके चेहरे पर देखा है। दस दिन ह...
गिरवी
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रूह मेरी गिरवी रख लो तुम और बदले में कुछ भी देना नहीं ये तन तो मिट्टी की तिजोरी है और मुझे संभालना ही कब आया कीमती चीजों को कभी मेरा तो सब कुछ लूट ही जाना है लूट ही जाएगा तमाम ख्वाहिशें, उमंग और जीने की चाह भी एक दिन बिक जाएगी लेकिन रूह बचेगी तुम्हारे पास और कीमत उसकी बढ़ती ही जाएगी रूह मेरी गिरवी रख लो तुम और बदले में कुछ भी देना नहीं
इमरोज़
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तुम्हारे बारे में सोचते हुए मैं अक्सर उसी के बारे में सोचती रही हूँ और यह भी कि प्यार क्या ऐसा ही होता है... कि सदियों तक तुम्हारे नाम कोई जुदा न कर पाए कि मरने के बाद भी वो वहीं रहे, बिल्कुल वैसे ही हमेशा की तरह कि वो अनजाने ही तुम्हारी पीठ पर किसी और का नाम लिख दे और तुम फिर भी उससे बेपनाह मोहब्बत करो क्यूंकि उसकी मोहब्बत भी उसकी है और तुम भी कि तुम पेंटर से कवि बन जाओ और वो कवि से एक औरत - जो इश्क़ में मुकम्मल हो गयी है प्यार क्या ऐसा ही होता है इमरोज़? तुम्हारे बारे में सोचते हुए फिर अक्सर मैं उसके बारे में सोचने लगती हूँ.
शादी के बाद
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तुमने काट दिए दो पैर और कहा, "ऐसे गिर-गिर कर क्या चलोगी छोड़ दो। .. घर बैठे रहो। ... " तुमने रख लिए गिरवी दो हाथ और कहा, " क्या करोगी बिना हाथ के जाने दो.... घर बैठे रहो। ... " तुमने खींच ली जबान और समझाया, "कौन सुनेगा अब तुम्हारी मेरे सिवा... घर बैठे रहो। ... " फिर तुमने ब्रेनलेस साबित कर ऐलान कर दिया "कुछ करने योग्य नहीं हो भूल जाओ। ... घर बैठे रहो। ... " एक गोल्डमेडलिस्ट को बड़े आहिस्ते-से ड्राइंगरूम की चमक-धमक में कांच के शो-केस में बंद कर तुम बड़ी तहज़ीब-से मेहमानों से कहते हो, "हम अपनी बेटी को बहुत पढ़ाएंगे, वेस्ट नहीं होने देंगे इसका टेलेंट घर-में । " और मैं तुम्हारी बातों पर न हंस पाती हूँ न रो पाती हूँ।
भूख
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बाहर से निरिक्षण करने आये साहब ने चौथी कक्षा के विदयार्थियों के सामने रखे मिड-डे मील के खाने की जाँच की। पत्थर जैसी रोटी और पानी जैसी दाल देखकर साहब गुस्से से तमतमा गए। विद्यालय के अधिकारियों को फटकार लगाते हुए उन्होंने पुछा, "क्या तुम ऐसा खाना खा सकते हो? इन मासूम बच्चों को ऐसा खाना खिलाते तुम्हें शर्म नहीं आती? "जब साहब का गुस्सा इतने से शांत नहीं हुआ तब उन्होंने पत्थर जैसी रोटियां बच्चों को दिखाकर पुछा, "क्या रोज़ ऐसी ही रोटियां मिलती हैं?" बच्चे मूक दृष्टि से एक-टक साहब को देखते रहे। साहब ने फिर अनिश्चित भाव से अपने साथी से कहा , "आखिर कैसे खा लेते हैं बच्चे ऐसा खाना?" इतने में ही एक बच्चा दौड़ कर आया और साहब के हाथ से रोटी छीन ली। साहब फिर कुछ बोलते इससे पहले बच्चा बोल पड़ा, "भूख लगी है साहेब ... खाने दो ना। "
प्रेम
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रात आधी मैंने बितायी तारों को छूते हुए और तुम्हारे न होने पर भी तुम्हारी खुशबू को हौले से अपने भीतर महसूस करते हुए यह महज़ मेरे स्त्री और तुम्हारे पुरुष होने का सम्मोहन नहीं है यह एक अनुभूति है प्रेम से भीगी हुई उन सपनों के लिए जो मेरे अपने थे और कभी-कभी व्यक्ति से अधिक हम अपने ही सपनों से प्रेम करने लगते हैं।
रोज़ एक दिन गुजर जाता है
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सुबह की चाय से लेकर रात के खाने की नखरा-नुकुर तक रोज़ एक दिन गुज़र जाता है झाड़ - झटकार से लेकर सबकी जरूरतों का ख्याल रखने तक रोज़ एक दिन गुज़र जाता है न आकाश देखने की फुर्सत न चाँद निहारने की पाखाने से लेकर रसोईघर तक रोज़ एक दिन गुजर जाता है दिन कहाँ उगता है रात कहाँ सरक जाती है बुज़ुर्गों की डाँट से लेकर बच्चों की फटकार सुनने तक रोज़ एक दिन गुजर जाता है दिन महीने साल गुज़रते वक्त नहीं लगता जहाँ मन तक नहीं लगता था वहीँ पूरा जीवन लग जाता है रोज़ ... बस ! एक दिन गुजर जाता है